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सिसकियां (लघुकथा)/ रवि प्रभाकर

‘चल अब छोड़, जाने भी दे! इसमें इतना रोने की क्या बात है, यह कोई नयी बात थोड़े ही है। हम जैसे लोगों के साथ तो ये हमेशा से ही होता आया है। तू इतने टेसुए क्यों बहा रही हो ? वैसे गल्ती भी तेरी ही है, अगर तुझे प्यास लगी थी तो अपने पीने का पानी बाहर ही तो रखा होता है फिर तू रसोईघर में क्यों गई ?’ सिसक रही अपनी पत्नी को वो दिलासा दे रहा था।

‘मैं तो यही सोच कर इनके यहां काम करने को लगी थी कि चलो पढ़-लिख कर अफसर बन गए है तो क्या हुआ, हैं तो ये हम लोगों में से ही ना। पर ये लोग... कोई और हमारे साथ कैसे भी बर्ताव करें कोई फर्क नहीं पड़ता पर ये अपने होते हुए भी....।’ उसकी सिसकियां और गहराने लगीं।

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 5, 2016 at 5:41pm

अपने ही तो घाव देते है | बहुत सुंदर कथा हुई है आदरणीय रवि सर | हार्दिक बधाई |

Comment by kanta roy on February 4, 2016 at 11:28pm

हाँ , ये सच है की दुःख तो अपने लोगों के ही व्यवहार से होता है। हमेशा की तरह बेहद सधे  हुए ,  बहुत ही गहरे प्रभाव के साथ ,  तंज कायम किया  है यहां आपने  आदरणीय रवि जी । बधाई प्रेषित है।  


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Comment by गिरिराज भंडारी on January 21, 2016 at 7:35pm

आदरणीय रवि भाई , अशारों मे आपने बहुत गँभीर और कड़वा सच कह दिया ! लघुकथा के लिये आपको हार्दिक बधाई । 

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on January 21, 2016 at 6:05pm
वाआह्ह्ह्ह्ह्!बेहतरीन सन्देश का सम्प्रेषण हुआ है आदरणीय सर जी।एक नवीन कुप्रथा जो प्राचीन कुप्रथा से प्रेरित है।सादर हार्दिक बधाई इस अद्भुत रचना के लिए।

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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 20, 2016 at 8:58pm

आदरणीय रवि जी, गहन और प्रभावोत्पादक लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई 

Comment by pratibha pande on January 20, 2016 at 12:19pm

 कम शब्दों में बहुत गूढ़ अर्थ संप्रेषित करती इस लघु कथा पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय रवि प्रभाकर जी 

Comment by TEJ VEER SINGH on January 19, 2016 at 12:52pm

हार्दिक बधाई अदरणीय रवि प्रभाकर जी!बेहतरीन प्रस्तुति!

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on January 19, 2016 at 10:50am
वाााह.....
// ... कोई और हमारे साथ कैसे भी बर्ताव करें कोई फर्क नहीं पड़ता पर ये अपने होते हुए भी....।//...बेहतरीन पंचपंक्ति के साथ बेहतरीन संदेश वाहक अनुपम कृति के लिए बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय श्री रवि प्रभाकर जी। मूल समस्या हल होने के बजाए अपने नये तुच्छ रूप लेती जा रही है। अपने ही अपनों के साथ ऊंच-नीच/छुआछूत का बर्ताव करने से नहीं चूकते!

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