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ग़ज़ल - लहू इंसाँ का हूँ , सस्ता रहा हूँ ( गिरिराज भंडारी )

1222    1222    122 

बहुत बेकार सा चर्चा रहा हूँ

मैं सच हूँ, आँख का कचरा रहा हूँ

 

बहा हूँ मै सड़क पर बेवजह भी

लहू इंसाँ का हूँ , सस्ता रहा हूँ

 

जो समझा वो सदा नम ही रहा फिर

मै आँसू ! आँखों से बहता रहा हूँ

 

महज़ इक बूँद समझा तिश्नगी ने

भँवर के वास्ते तिनका रहा हूँ

 

जलादूँ एक तो बाती किसी की   

इसी उम्मीद में दहका रहा हूँ   

 

मुझे मानी न पूछें ज़िन्दगी का

अभी ख़ुद को ही मैं समझा रहा हूँ

 

किसी के वास्ते खुशियों का कारण

किसी की राह का काँटा रहा हूँ

 

बहे आँसू ने छू कर फिर जगाया

न जाने कब तलक सोता रहा हूँ

 

तेरी ही सोच ने मारा है मुझको

तेरी ही सोच में जीता रहा हूँ

*********************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 6, 2015 at 11:15am

आदरणीय बड़े भाई  गोपाल जी , आपकी स्नेहिल सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 6, 2015 at 11:14am

आदरनीय शुशील सरना भाई , हौसला अफज़ाई का बेहद शुक्रिया आपका ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 6, 2015 at 11:13am

आदरणीय रवि भाई , आपकी मुहब्बतों और इनायतों का तहे दिल से शुक्रिया ।

दहका लिखनेव के पीछे कोई विशेष कारण नही है , आदरणीय , बस दहका कहने से मुझे जलता से जियादा सही लगा , ये मेरे मन की बात है कि मै सुलगने से शुरू हो के दहकने तक की क्रिया मे जियादा दर्द पाता हूँ , मै नही जानता कि ये सही है कि नहीं । आशा करता हूँ आपके प्रश्न का उत्तर मि गया हो ।

Comment by Samar kabeer on October 5, 2015 at 11:11pm
जनाब गिरिराज भंडारी जी,आदाब,बहुत ख़ूब ग़ज़ल कही है आपने,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें ।
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on October 5, 2015 at 10:49pm
सुंदर रचना।इसे याद करने की कोशिश कर रहा हूँ।बधाई स्वीकारें आदरणीय
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on October 5, 2015 at 10:26pm

मुझे मानी न पूछें ज़िन्दगी का

अभी ख़ुद को ही मैं समझा रहा हूँ..........वाहह्ह्ह्हह्ह वाह! गज़ब!

तेरी ही सोच ने मारा है मुझको

तेरी ही सोच में जीता रहा हूँ............मक्ते ने दिल लूट लिया! बेहतरीन!

आ० आपकी गज़लें जिस सहजता से होती है,उसका कायल हो गया हूँ..नमन!

Comment by जयनित कुमार मेहता on October 5, 2015 at 9:07pm
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल हुई है,आदरणीय!
शेर दर शेर दाद क़ुबूलें..
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 5, 2015 at 8:40pm

बहा हूँ मै सड़क पर बेवजह भी

लहू इंसाँ का हूँ , सस्ता रहा हूँ-------subhaanallah , bahut khoob

Comment by Sushil Sarna on October 5, 2015 at 7:21pm

महज़ इक बूँद समझा तिश्नगी ने
भँवर के वास्ते तिनका रहा हूँ

वाह आदरणीय गिरिराज भाई साहिब वाह .... अहसासों में निहित यथार्थ को चित्रित करते अशआर बन्दे के दिल को भा गए … हार्दिक बधाई कबूल फरमाएं आदरणीय सर।

Comment by Ravi Shukla on October 5, 2015 at 7:44am
आदरणीय गिरिराज जी आदाब खूबसूरत ग़ज़ल के लिए शेर दर शेर मुबारकबाद क़ुबूल करिये । सुन्दर अशआर हुए है । जला दू एक बाती के सांई में आपने दहका लफ्ज़ कुछ सोचकर ही इस्तेमाल किया होगा उसके बारे में कुछ समझाएं । पहली बार में जला दूं से जलता रहा हूँ या सुलग रहा हूँ लफ्ज़ ज़ेह्न में आते है ।हम आपके मानी तक पहुचना चाहते है इसलिए । सादर ।

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