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परिणति पीड़ा

रिश्ते के हर कदम पर, हर चौराहे पर

हर पल

भटकते कदम पर भी

मेरे उस पल की सच्चाई थी तुम

जिस-जिस पल  वहीं कहीं पास थी तुम

जीवन-यथार्थ की कठिन सच्चाइयों के बीच भी

खुश था बहुत, बहुत खुश था मैं

पर अजीब थी ज़िन्दगी वह तुम्हारे संग

स्नेह की ममतामयी छाओं के पीछे भी मुझमें

था कोई अमंगल भ्रम

भीतरी परतों की सतहों में हो जैसे

अन-चुकाये कर्ज़ का कंधों पर भार

तुमसे कह न सका पर इतनी खुशी से मुझको

अकसर लगता था डर ...

डर .... कि कब किसी  ‘अविवेकी ’ सत्य के बहाने

कोई इर्ष्या-प्रसूत पल

पगलाये स्वार्थों में पली दानव-सी हँसी हँस दे

हमारे स्वर्णिम पलों की असलियत को अकस्मात

आश्रयहीन कर दे

मेरे कोमल शिशु-मन को आवेग में दबोच

भीषण दर्दीले प्रश्नों की तपती रेत में मुझको

छोड़ जाए अकेला असहाय अनुत्तरित

और आंतरिक बारूदी धुएँ से घिरा

बेचैन मन उस दम घोटते धुएँ में पुकारे तुमको

टूटे विश्वास की गहरी चोट लिए

--------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

(copyright)

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 1, 2015 at 6:42pm

आदरणीय बड़े भाई विजय जी , आत्मीय रिश्ते से अलगाव का भय आपकी रचना मे मुखरित है । बहुत सुन्दर , हार्दिक बधाइयाँ आपको ।

Comment by vijay nikore on July 1, 2015 at 3:09pm

//भटक रहा रति सा विकल  तुम हो चुकी अनंग  I

जीवन  बस  कट्ता  यहाँ  इस  पीड़ा  के  संग  I//

आपके लिखे इन शब्दों की भावना मेरी रचना से सुगम सस्पंदन करती है।

हार्दिक आभार, आदरणीय गोपाल नारायन जी।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 1, 2015 at 2:58pm

आदरणीय निकोर सर, आपने मन में उपजे अंतर्संबंधों के विलगने के भय को बड़ी सहजता से शाब्दिक किया है बिम्ब और प्रतीकों में  मन राजस्थान का रेतीला बार्डर हो गया है. इस भावात्मक प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई, नमन 

Comment by vijay nikore on July 1, 2015 at 1:07pm

//मन में समाये रिश्तों के खोने का भय , बहुत सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है//

रचना की सराहना के लिए हृदयतल से आभार, आदरणीय विजय शंकर जी।

Comment by shree suneel on July 1, 2015 at 8:06am
अच्छी प्रस्तुति आदरणीय विजय निकोर सर. बधाई आपको.
Comment by Hari Prakash Dubey on June 24, 2015 at 5:56pm

आदरणीय विजय निकोर सर , बहुत सुन्दर  रचना , हार्दिक बधाई , सादर।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 24, 2015 at 4:21pm

भटक रहा रति सा विकल  तुम हो चुकी अनंग  I

जीवन  बस  कट्ता  यहाँ  इस  पीड़ा  के  संग  II ---------सादर निकोर जी

Comment by vijay nikore on June 24, 2015 at 10:10am

रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय मदन मोहन जी।

Comment by Dr. Vijai Shanker on June 23, 2015 at 10:02pm

मन में समाये रिश्तों के खोने का भय , बहुत सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है, बधाई, आदरणीय, विजय निकोर जी , सादर। 

Comment by Madan Mohan saxena on June 23, 2015 at 4:14pm

superb

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