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नूर -अतुकांत/ छंदमुक्त रचना

चाँद,

फ़क़त तुम्हारा नहीं,

मेरा भी है.

इसलिए नहीं की मै,

उसे निहारता हूँ

किसी रेतीले किनारे से

या इंतज़ार करता हूँ,

ईद के चाँद का.

मै व्रत भी नहीं रखता,

किसी तीज या चौथ का.

फिर भी चाँद मेरा भी है.

इसलिए, कि  मै जहाँ जाता हूँ,

ये मेरे पीछे पीछे चला आता है.

मेरे हमसाये की तरह.

और मेरा हाल-ए–दिल

बयां कर देता है उसके सामने

जो मुझसे मीलों दूर है.

.
.

चलो...

एक समझौता कर लें,

इस बात का फैसला कर लें,

कि चाँद कितना तुम्हारा है,

और कितना मेरा.

यूँ कर लेते है कि बस,

बाँट लेते है हम तुम

अपने अपने हिस्से का चाँद.

जिस ओर भी चाँद में रौशनी हो,

वो हिस्सा तुम रख लेना.
और अँधेरे वाला हिस्सा
कर देना मेरे हवाले.

दरअसल वही हिस्सा तो

मुझे सूट भी बहुत करता है.

आदत जो हो गयी है,

इतने बरसों से

गुमनामी के अँधेरों में रहने की

तुम्हारे बगैर......
.
नूर
मौलिक /अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 28, 2015 at 8:25pm

शुक्रिया आ. दिनेश जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 28, 2015 at 8:25pm

शुक्रिया आ. सौरभ सर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 28, 2015 at 8:25pm

शुक्रिया आ. विजय निकोरे जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 28, 2015 at 8:24pm

शुक्रिया आ. जान गोरखपुरी साहब 

Comment by दिनेश कुमार on April 28, 2015 at 6:51pm
बहुत खूब ...सीधे दिल में उतरती है।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 28, 2015 at 4:23pm

हम्म्म............  ’नीलेश’ के इन्हीं प्रयासों ने हमें ’नूर’ दिया है.

बहुत-बहुत  बधाइयाँ..

Comment by vijay nikore on April 28, 2015 at 4:10pm

सुन्दर रचना के लिए बधाई।

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 28, 2015 at 2:34pm

ऐसी रचनाए ही अस्ल में,लेखक,कवि,शायर आदि को पैदा करती है,ऐसी ही रचनाओ की देन है कि हम आज साहित्य के सफ़र में हैं,आदरणीय नीलेश सर रचना पर हार्दिक बधाई!!

मेरी भी इस तरह की रचनाओं से पटी कई डायरियाँ है,समय-समय उन्हें खोलकर पढ़ा करता हूँ,सच है इन रचनाओं से हमेशा मोह रहता है,बिल्कुल वैसे ही जैसे कि पहला प्यार!!

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 28, 2015 at 8:50am

शुक्रिया आ. मोहन सेठे साहब. शुक्रिया आ. श्री सुनील जी.
कई ऐसे शब्द हैं जो बोलचाल का हिस्सा हो गए है जैसे कॉफ़ी हाउस...इसे कहवाघर अथवा उपहार गृह भी कहा जा सकता है लेकिन वो रस नहीं मिलता.   
रचना लिखते समय दो शब्द आप्शन में थे ..रास आता है ..फबता है ...और मुझे लगा कि दोनों ही सूट के मुकाबले में कम प्रचलित हैं. अक्सर हम यूँ बोलते हैं  फलां क्रीम बहुत सूट करती है मुझे. या कॉफ़ी सूट नहीं करती ...इसलिए अंतत: मैंने वही किया जो इस रचना पर सूट कर रहा था. 
सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 28, 2015 at 8:42am

शुक्रिया आ. डॉ श्रीवास्तव साहब 

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