For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ग़ज़ल -- कोलाहल थोड़ा सा कोई लाया क्या ? ( गिरिराज भंडारी )

22  22  22  22  22  2   

दरवाज़े पर देखो कोई आया  क्या ?

अपने हिस्से का कोलाहल लाया क्या ?

ख़ँडहर जैसा दिल मेरा वीराना, भी

खनक रही इन आवाज़ों को भाया क्या ?

कुतिया दूध पिलाती है, बंदरिया को

इंसाँ मारे इंसाँ को, शर्माया क्या ?

 

फुनगी फुनगी खुशियाँ लटकी पेड़ों पर

छोटा क़द भी, तोड़ उसे ले पाया क्या ?

 

सारे पत्थर आईनों पर टूट पड़े

कोई पत्थर ,पत्थर से टकराया क्या ?

जुगनू सहमा सहमा सा क्यों लगता है

कोई सूरज फिर उसको धमकाया क्या ?

 

खाली जाम सुराही प्याले पूछ रहे

किसी समस्या का निदान भी पाया क्या ?

***************************************

गिरिराज भंडारी

 

 

Views: 925

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 23, 2015 at 2:28pm

आ० अनुज

पहले तो मुझे' दरवाजे में 'पर आपत्ति है i दरवाजे पर कोई आयेगा  i  फिर आपने शायद इसे समय कम दिया  i  सादर ,


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 23, 2015 at 1:37pm

आदरणीय नीलेश भाईजी, यह आप सबों की सदाशयता ही है कि मेरी थोड़ी-बहुत समझ भी किसी काम आ जाती है और उसे आप और गिरिराजभाई जैसे धुरंधर ग़ज़लगो मान दे देते हैं. हम सब समवेत ही सीख रहे हैं आदरणीय. अपना यह स्कूल चलता रहे.

आपने सही पकड़ा, आदरणीय. इस बहर की खुसूसियत (विशेषता) ही लय है. अगर इस बहर पर आधारित मिसरों की लय बाधित है तो फिर कोई ग़ाफ़ और लाम काम नहीं आते.  :-)))
सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 23, 2015 at 1:29pm

आदरणीय गिरिराजभाईजी, उम्मीद है, मैं जो कहना चाहता हूँ वह संप्रेषित हो पाया है.

शिल्प पर यथोचित पकड़ बनते ही कहन को साधने का प्रयत्न आवश्यक हो जाता है. अन्यथा कई गूढ़ और गहन बातें सही ढंग से न कही जाने के कारण सामान्य-सी दिखने लगती हैं. संवेदनशील मन बहुत कुछ चौंकाता हुआ सोचने और लिखने का कारण होता है. लेकिन कहन या कथ्य यदि सान्द्र या व्यवस्थित न हों, तो शिल्प की उच्च जानकारी भी धरी की धरी रह जाती है. इसी स्तर के रचनाकारों से भाव पक्ष पर ध्यान देने को कहा जाता है. लेकिन होता यह है कि शिल्प और विधान के अभ्यासी इस बात को पकड़ कर बैठ जाते हैं और इससे सम्बन्धित उद्धरण देते हुए शिल्प तथा विधान की हेठी करने लगते हैं. इतना ही नहीं, इसी बिना पर शिल्प और विधान को सीखने से कतराने लगते हैं. जबकि दोनों बातें दो स्तरों के अभ्यासियों के लिए हुआ करती हैं..

सादर

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 23, 2015 at 1:26pm

बहुत खूब आ. गिरिराज जी. 
आ. सौरभ सर के सुझाव न सिर्फ मिसरों तक सिमित है अपितु लय को साधने का क्रैश कोर्स भी हैं.
सादर  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 23, 2015 at 12:18pm

आदरनीय सौरभ भाई , गज़ल पर आपकी उपस्थिति , उचित सलाह और सराहना के लिये आपका आभारी हूँ । आदरनीय समय तो बहुत दिया था , एक महीने से ऊपर , पर कहन धीरे धीरे ही सुधरेगी ऐसा लगता है , सोच को विस्तार देना और गहराना दोनो बाक़ी है , प्रयास रत हूँ ।

आपके सुझाये सभी मिसरे लाजवाब हैं , इन्हे ऐसे ही स्वीकार करता हूँ , आवश्यक बदलाव ज़रूर कर लूंगा । आपका आभार ॥


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 23, 2015 at 11:43am

अच्छे प्रयासों से निखरती हुई ग़ज़ल ध्यान खींचती है, आदरणीय गिरिराज भाई. हार्दिक शुभकामनाएँ

वैसे कुछ शेरों को तनिक और समय मिलता तो वे और तार्किक एवं और अधिक संप्रेषणीय हो सकते थे. 

जैसे

दरवाज़े में देखो कोई आया क्या ?                           दरवाज़े में देखो कोई आया क्या ?
कोलाहल थोड़ा सा कोई लाया क्या ?                        अपने हिस्से का कोलाहल लाया क्या ?

ख़ँडहर जैसा दिल मेरा वीराना, भी                          ख़ँडहर जैसा मेरा दिल  वीराना भी  
आवाजों को ज़रा ज़रा सा भाया क्या ?                     खनक रही इन आवाज़ों को भाया क्या ?

सारे पत्थर आईनों पर टूट पड़े                               सारे पत्थर आईनों पर टूट पड़े
पत्थर से पत्थर कोई टकराया क्या ?                       कोई पत्थर पत्थर से टकराया क्या ?

आदि ............
ऐसी मेरी सोच बन रही है. आगे आप भी देखियेगा ..

सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 23, 2015 at 11:26am

आदरणीय लक्ष्मण भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ॥

अस बह्र मे  22 को  112 . 121 , 211 करने की छूट है , बस आप लय को साथ साथ साधते चलिये । कहने का मतलब ये कि 1 मात्रिक को अकेला नहीं छोडते अगल बगल और 1 मात्रिक ले कर 2 कर लिया जाता है । प्रयास रहे कि मात्रा गिराना न पड़े , पर इसके भी अपवाद मिलते हैं ॥

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 23, 2015 at 11:15am

आ0 भाई गिरिराज जी सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई स्वीकारें । साथ ही आपसे निवेदन है कि बह्र की तकतीअ करने के तरीके का मार्गदर्शन करें  इन दो पंक्तियों का वज्न किस प्रकार निर्धारित हुआ है । और किस नियम के तहत । जिससे मुझ जैसे लोगों को लाभ प्राप्त हो सके l

किसी समस्या का निदान भी पाया क्या ?

12     1 2  2  2    121   2   22   2

आवाजों को ज़रा ज़रा सा भाया क्या ?

2 2 2    2  12   12  2    22   2

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"यूॅं छू ले आसमाॅं (लघुकथा): "तुम हर रोज़ रिश्तेदार और रिश्ते-नातों का रोना रोते हो? कितनी बार…"
Tuesday
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"स्वागतम"
Sunday
Vikram Motegi is now a member of Open Books Online
Sunday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .पुष्प - अलि

दोहा पंचक. . . . पुष्प -अलिगंध चुराने आ गए, कलियों के चितचोर । कली -कली से प्रेम की, अलिकुल बाँधे…See More
Sunday
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय दयाराम मेठानी जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दयाराम जी, सादर आभार।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई संजय जी हार्दिक आभार।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. रिचा जी, हार्दिक धन्यवाद"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दिनेश जी, सादर आभार।"
Apr 27
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय रिचा यादव जी, पोस्ट पर कमेंट के लिए हार्दिक आभार।"
Apr 27
Shyam Narain Verma commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: ग़मज़दा आँखों का पानी
"नमस्ते जी, बहुत ही सुंदर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
Apr 27

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service