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चंचल नदी

बाँध के आगे

फिर से हार गई

बोला बाँध

यहाँ चलना है

मन को मार, गई

 

टेढ़े चाल चलन के

उस पर थे

इल्ज़ाम लगे

उसकी गति में

थी जो बिजली

उसके दाम लगे

 

पत्थर के आगे

मिन्नत सब

हो बेकार गई

 

टूटी लहरें

छूटी कल कल

झील हरी निकली

शांत सतह पर

लेकिन भीतर

पर्तों में बदली

 

सदा स्वस्थ

रहने वाली

होकर बीमार गई

 

अपनी राहें

ख़ुद चुनती थी

बँधने से पहले

अब तो सबकुछ

पूछ रही वो

रुक जाए, बह ले

 

आजीवन वो

उसी राह से

हो लाचार, गई

---------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Nidhi Agrawal on April 8, 2015 at 3:26pm

बहुत सुन्दर रचना हुई .. इन पंक्तियों ने बहुत प्रभावित किया 

अपनी राहें

ख़ुद चुनती थी

बँधने से पहले

अब तो सबकुछ

पूछ रही वो

रुक जाए, बह ले

Comment by Samar kabeer on April 8, 2015 at 3:05pm
जनाब धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी,आदाब,सुन्दर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें |

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on April 8, 2015 at 9:58am

आदरणीय धर्मेंद्र जी ग़जल के साथ आपकी अन्य विधाओं में कही गई रचनायें भी प्रभावित करती हैं इस नवगीत के लिये दाद हाज़़िर है


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 8, 2015 at 7:33am

बहुत दिनों बाद आपकी ओर से नवगीत सुन रहा हूँ, आदरणीय धर्मेन्द्रजी. नवगीत की विशिष्टताओं के साथ साझा हुई यह प्रस्तुति अपने इंगितों से संतुष्ट करती है. प्रगति की समस्त घोषणाओं के बावज़ूद सामान्य नारी की दशा, उसकी विवशता तथा व्यथा को नदी के बिम्ब से सार्थक शब्द मिले हैं. कथ्य और शिल्प दोनों में रचनात्मकता उभर कर बाहर आयी है.
इस सुगढ़ नवगीत के लिए हार्दिक धन्यवाद और अतिशय बधाइयाँ.

Comment by Dr. Vijai Shanker on April 8, 2015 at 5:17am
चंचलता पर हजार बंदिशें ,
जड़ता ( पत्थर ) है उन्मुक्त,
नदी , क्यों न हो लाचार
अवरुद्ध बहाव , हो बीमार ॥
खूबसूरत, बधाई , आदरणीय धर्मेन्द्र कुमार जी , सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 7, 2015 at 7:42pm
आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी बहुत ही सुन्दर नवगीत है। आदरणीया प्राची जी ने बहुत सार्थक प्रतिक्रिया दी है उससे सहमति व्यक्त करते हुए ढेर सारी बधाई। मैं पुनः नवगीत के लिए प्रेरित हो रहा हूँ आपका सशक्त नवगीत पढ़कर। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक धन्यवाद।
Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on April 7, 2015 at 4:43pm
वाह खुबसूरत ख्याल पेश किया है आपने।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 7, 2015 at 4:41pm
स्त्री के बंधित जीवन को नदी के सहारे जिस खूबसूरती से आपने प्रस्तुत किया है..उसने मन मोह लिया
प्राकृतिक बिम्बों का प्राणवान मानवीकरण इस नवगीत का विशिष्ट पक्ष बना है

इस खूबसूरत सार्थक नवगीत के लिए हार्दिक बधाई आ० धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी

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