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ग़ज़ल - तीर के अपने नियम हैं जिस्म के अपने नियम ( गिरिराज भंडारी )

 तीर के अपने नियम  हैं जिस्म के अपने नियम

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2122       2122        2122     212

तीर के अपने नियम  हैं जिस्म के अपने नियम

एक  का जो फर्ज़  ठहरा  दूसरे  का  है सितम

 

कुछ हक़ीक़त आपकी भी सख़्त थी पत्थर  नुमा

और कुछ  मज़बूतियों के थे हमे भी  कुछ भरम

 

मंजिले  मक़्सूद  है, खालिश  मुहब्बत  इसलिए

बारहा  लेते   रहेंगे  मर के  सारे  फिर  जनम

 

किस क़दर अपनी मुहब्बत मुश्किलों मे फँस गई 

इस तरफ खींचे मुहब्बत उस तरफ  खींचे  धरम

 

तुम  मुहब्बत को  मुहब्बत की नज़र से देखना

तब मुहब्बत को समझ पाओगी,ओ संगे  सनम

 

गर वफ़ा  की बात दिल में है नहीं, क्या फ़ाइदा

लाख वादे तुम करो , खाते रहो जितनी  क़सम

 

अश्क़  का  दर्या  बहा जब लोग  देखे तो मगर

संग दिल लोगों की आँखें हो न पायीं थोड़ी नम

 *******************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

 

Views: 884

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 26, 2014 at 10:31am

आदरणीय विजय शंकर भाई , हौसला अफजाई के लिए आपका दिली शुक्रिया |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 26, 2014 at 10:30am

आदरणीय हरि वल्लभ भाई , हौसला अफजाई के लिए आपका हार्दिक आभार |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 26, 2014 at 10:29am

आदरणीय दया राम भाई , सराहना के लिए आपका शुक्रिया |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 26, 2014 at 10:29am

आदरणीय आशुतोष भाई . आपका हार्दिक आभार |

Comment by Shyam Narain Verma on September 26, 2014 at 10:10am

" सुंदर गजल के लिए हार्दिक बधाई   "

Comment by Dr. Vijai Shanker on September 25, 2014 at 11:53pm
गर वफ़ा की बात दिल में है नहीं, क्या फ़ाइदा
लाख वादे तुम करो , खाते रहो जितनी क़सम
बहुत सुन्दर ग़ज़ल बनी , आदरणीय गिरिराज जी , बधाई .
Comment by harivallabh sharma on September 25, 2014 at 11:49pm

बहुत सुन्दर ग़ज़ल है आदरणीय गिरिराज भंडारी साहब...

तीर के अपने नियम  हैं जिस्म के अपने नियम

एक  का जो फर्ज़  ठहरा  दूसरे  का  है सितम....सभी शेर जबरदस्त...बधाई आपको.

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 25, 2014 at 11:01pm

वाह ! बहुत ही खूबसूरत गजल कही आपने आदरणीय गिरिराज जी दिली बधाई स्वीकारें

Comment by Dayaram Methani on September 25, 2014 at 10:16pm

बहुत सुंदर गज़ल। बधाई।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 25, 2014 at 7:49pm

किस क़दर अपनी मुहब्बत मुश्किलों मे फँस गई 

इस तरफ खींचे मुहब्बत उस तरफ  खींचे  धरम...................मुहब्ब्बत में अक्सर ये होता है बेहतरीन 

 

तुम  मुहब्बत को  मुहब्बत की नज़र से देखना

तब मुहब्बत को समझ पाओगी,ओ संगे  सनम................कमाल की नजर चाहिए वाकई 

 

गर वफ़ा  की बात दिल में है नहीं, क्या फ़ाइदाए 

लाख वादे तुम करो , खाते रहो जितनी  क़सम....................बिलकुल सही बात 

आदरणीय गिरिराज भाईसाब   इस रचना के लिए आपको तहे दिल बधाई सादर 

कृपया ध्यान दे...

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