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भ्रष्टाचार जड़ों में था - डा० विजय शंकर

भ्रष्टाचार जड़ों में था,
वो पत्ते खड़काते रहे , बोले ,
हर पत्ते को खड़का दूंगा ,
भ्रष्टाचार मिटा दूंगा .
पत्ता-पत्ता हिल गया था .
बड़ा शोर औ गुल हुआ था ,
पत्तों का बेइंतहा क्रंदन हुआ था .
हिसाब लगाया गया ,
बड़ा पैसा खर्च हो गया था ,
और नतीजा कुछ नहीं आया था .
पर वे निराश नहीं हुए ,
हताश बिलकुल भी नहीं हुए ,
बोले , पत्ता-पत्ता नुचवा दूंगा .
फिर क्या ,एलान हुआ ,और
पत्ता-पत्ता नोच डाला गया .
पत्ते पुराने थे , पहले से गिर रहे थे
फिर भी बताया गया ,
खर्चा इस बार कुछ
हजार गुना ज्यादा हो गया है .

पर , मौसम बदल चुका था ,
नयी कोपलें फूट रहीं थीं .
बोले , क्या नहीं हो सकता ,
जो कहा , कर डाला है ,
नैये नैये पत्ते आएगें ,
नया ज़माना लायेगें . बस !
जनता के सहयोग की जरुरत है .
सींचिये ! एक एक पेड़ को सींचिये .
गर्मियां आने वाली थीं , लोग
घरों से लोटों में , गिलासों में ,
छोटी-बड़ी बाल्टियों में पानी ,
ला ला कर दिन-दिन भर ,
एक - एक पेड़ सींचने लगे .
एक रुपया ,दो रुपया , पांच रुपया ,
हर बार खर्च करने लगे .
खर्च का बोझ इस बार
जनता ने उठाया था .
इसलिए हिसाब किसी ने
नहीं लगाया था .
लहलहा कर इस बार
नैये नैये पत्ते निकले थे .
कोमल , चिकने , चमकदार .
इतने चमकदार कि खुद पर
एक बून्द पानी ठहरने नहीं देते ,
कोई जड़ के बजाय उन पर दाल दे
तो तुरंत गिरा देते , जड़ों में पहुंचा देते .
जड़ें और मजबूत हो रहीं थीं .
दोनों की उम्मीदें अलग अलग
बल पकड़ रहीं थीं .
उनकीं जड़ों के मजबूत होने से ,
जनता की , पत्तों के चिकने होने से.
अब दोनों खुश थे ,
वो इसलिए कि जड़ें
और मजबूत हो गयी हैं .
जनता इसलिए कि नैये पत्ते
उन्होंने उगाये हैं , चिकने चिकने .
जो उनकें हैं , उनके अपने पत्ते .
लेकिन अच्छाई लोगों को दूर दूर तक
बिलकुल दिखाई नहीं देती और
बुराई की कोई सीमा नहीं दिखती
कुछ बुरे लोग लगातार पूछ रहे हैं ,
कि भ्रष्टाचार मिटा क्यों नहीं .
तंग आकर उन्होंने एक जांच बैठाना
स्वीकार कर लिया है . और ,
जनता ने फिर उत्साह से उसका
खर्च उठाना स्वीकार कर लिया है .

मौलिक एवं अप्रकाशित.
डा० विजय शंकर

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Comment by Dr. Vijai Shanker on July 7, 2014 at 2:45am
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 7, 2014 at 1:32am

बहुत खूब !

भ्रष्टाचार की खूब बखिया उधेड़ने की कोशिश हुयी है. बधाई

Comment by Dr. Vijai Shanker on June 23, 2014 at 7:27pm
जी , और भ्रष्टाचार का मारा ही उसका बोझ भी उठायेगा.
सादर , बहुत बहुत धन्यवाद आ o गोपाल नारायण जी.
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 23, 2014 at 7:18pm

आदरनीय  बंधु  i

बहुत सुन्दर रचना  i कुछ भी हो कटेगा कद्दू ही बेचारा  i  वाह i 

Comment by Dr. Vijai Shanker on June 23, 2014 at 11:24am
अजेय , अमर भ्रष्टाचार पर और किया भी क्या जा सकता है , व्यंग ही किया जा सकता है ।
आपको व्यंग पसंद आया आ o लक्ष्मण धामी जी , धन्यवाद ।
Comment by Dr. Vijai Shanker on June 23, 2014 at 11:16am
आदरणीय गिरिराज जी ,
रचना आपको अच्छी लगी , अच्छा लगा , धन्यवाद ,
रही बात समाधान की तो वो तो हम ऐसे ही ढूंढतें हैं ,
एक कविता उस पर भी लिख डालते हैं ।
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 23, 2014 at 11:12am

भ्रष्टाचार पर अच्छा व्यंग्य किया है आ० विजय शंकर भाई . बहुत बहुत हार्दिक बधाई .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 23, 2014 at 10:26am

यही है वास्तविक सच्चाई , आदरनीय विजय भाई , आपको हार्दिक बधाइयाँ । सच है जड़ों मे मठ्ठा डालने की ज़रूरत है , और इधर कोई देखता नही है ।

Comment by Dr. Vijai Shanker on June 22, 2014 at 9:53pm
बहुत बहुत धन्यवाद आ o जवाहर लाल जी ,
वो तो है सर्वत्र ,
कोई क्यों ढूंढे इधर उधर ,
वो है नहीं, किधर .
सादर.
Comment by JAWAHAR LAL SINGH on June 22, 2014 at 9:29pm

बहुत ही सुन्दर तरीके से आपने व्यंग्य को रक्खा है, आखिर भ्रष्टचार में क्या रक्खा है, जो उधर था आज इधर है, देखता किधर है?

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