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फिर हुई जीने की इच्छा आज मन में ( ग़ज़ल ) गिरिराज भंडारी

2122       2122       2122  

फिर हुई जीने की इच्छा आज मन में

फिर बुलाया आज  कोई  है सपन में

फड़फड़ाने फिर लगा कोई परों को

फिर उड़ेगा वो किसी नीले गगन में

फिर से पीड़ा मीठी सी कुछ हो रही है

शीत भी मिलने लगी है अब जलन में

कोपलें फिर फूटती सी दिख रहीं हैं

क्या बहारें आ रहीं हैं फिर चमन में  ?   

बाल सुलझे छू , हवायें आ रहीं हैं

फिर महक सी आ रही है अब पवन में

फिर हृदय में हूक है , कोई चुभन है

फिर मज़ा आने लगा है इस चुभन में

फिर से आँखें टिक गई है शून्य मे अब

कुछ नये सपने बसा के फिर नयन में

फिर से तेरी सोच मे डूबा हुआ हूँ

तू ही तू छाया मेरे चिंतन-मनन में 

फिर मुझे समझा रहे हैं मित्र मेरे ,

हाथ जल जाये न फिर ऐसे हवन में

*********************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment

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Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on January 22, 2014 at 12:06am

फिर हृदय में हूक है , कोई चुभन है

फिर मज़ा आने लगा है इस चुभन में |

वाह बढ़िया ग़ज़ल आदरणीय  !

Comment by ajay sharma on January 21, 2014 at 11:04pm

फिर मुझे समझा रहे हैं मित्र मेरे ,

हाथ जल जाये न फिर ऐसे हवन में.............sir ji kya khoob gazal kahi hai ..............wah wah

Comment by Priyanka singh on January 21, 2014 at 7:31pm

''कुछ नया होने को है''...... बहुत बढ़िया सर ....बधाई आपको .....

Comment by कल्पना रामानी on January 21, 2014 at 7:25pm

आदरणीय गिरिराज जी, बहुत शानदार गजल कही है आपने, बहुत बहुत बधाई आपको


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 21, 2014 at 3:30pm

आदरनीय राहुल भाई , गज़ल की सराहनाअ के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 21, 2014 at 3:30pm

आदरणीय श्याम भाई , रचनाअ की सराहना कर उत्साह वर्धन करने के लिये आपका शुक्रिया ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 21, 2014 at 3:29pm

आदरणीय लक्ष्मण भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 21, 2014 at 3:28pm

आदरणीया कुंती जी , उत्साह वर्धन के लिये आपका तहे दिल से आभार ॥

Comment by Shyam Narain Verma on January 21, 2014 at 10:02am
इस खूबसूरत  रचना की हार्दिक बधाई....
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 21, 2014 at 7:50am

आदरणीय भाई गिरिराज जी सुन्दर ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई .

कोपलें फिर फूटती सी दिख रहीं हैं

क्या बहारें आ रहीं हैं फिर चमन में  ?

बहुत खूब

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