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ग़ज़ल -निलेश 'नूर' -लोग फिर

ग़ज़ल 
लोग फिर बातें बनाने आ गए,
यार मेरे, दिल दुखाने आ गए. 
...

जिंदगी का ज़िक्र उनसे क्या करूँ,
मौत को जो घर दिखाने आ गए.
...

रूठनें का लुत्फ़ आया ही नहीं,
आप पहले ही मनाने आ गए. 
...

दो घडी बैठो, ज़रा बातें करो,
ये भी क्या बस मुँह दिखाने आ गए.
...

जेब अपनी जब कभी भारी हुई,      
लोग भी रिश्ते निभाने आ गए.
...

राह से गुज़रा पुरानी जब कभी,
याद कुछ चेहरे पुराने आ गये. 
............................................................
मौलिक व अप्रकाशित 
निलेश 'नूर'

Views: 640

Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 12, 2013 at 9:12am

जी मैंने इस विषय पर चिंतन कर रहा हूँ ... जैसे ही कोई तरमीम सूझती है, बदलाव का निवेदन करूँगा.
सादर  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 8, 2013 at 12:57am

बहुत खूब ग़ज़ल हुई है, आदरणीय !  विलम्ब से इस ग़ज़ल पर आया हूँ, इसका खेद है.

गुणीजनों के सारे सुझावो पर ध्यान दे रहे होंगे. मैं आश्वस्त इसलिये हूँ कि आप एक गंभीर और अपने प्रति निर्मम प्रयासकर्ता हैं.

इता दोष पर अवश्य आलेख देख जायें

सादर

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 7, 2013 at 6:46am

शुक्रिया सभी को .... 
इस ग़ज़ल के मतले में इता दोष है ... अब इसे सुधारना ...ग़ज़ल रचने से अधिक कठिन चुनोती है ....
उम्मीद है कि आप सब के स्नेह और साथ से इसे दुरुस्त कर पाऊंगा 
पुन: आभार 

Comment by vandana on December 4, 2013 at 6:46am

...

जेब अपनी जब कभी भारी हुई,      
लोग भी रिश्ते निभाने आ गए.
...

राह से गुज़रा पुरानी जब कभी, 
याद कुछ चेहरे पुराने आ गये. 

बहुत बढ़िया आदरणीय नीलेश जी 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on December 4, 2013 at 6:35am

आदरणीय नूर जी ..हर शेर जानदार ..वर्तमान परिदृश्य का बेहतरीन खाका खींचा है आपने ..आजकल ये सब वाकई आम होता जा रहा है ..ढेरों बधाई कबूल करें भाई जी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 4, 2013 at 12:00am

//रूठनें का लुत्फ़ आया ही नहीं,
आप पहले ही मनाने आ गए. 
...

दो घडी बैठो, ज़रा बातें करो,
ये भी क्या बस मुँह दिखाने आ गए.
...

जेब अपनी जब कभी भारी हुई,      
लोग भी रिश्ते निभाने आ गए.// बहुत बढ़िया अशआर हुये हैं बधाई आपको

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on December 3, 2013 at 11:44pm

जिंदगी का ज़िक्र उनसे क्या करूँ,
मौत को जो घर दिखाने आ गए.

वाह बहुत खूब !!

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 3, 2013 at 3:56pm

नूर--=-=-=नूर-------------- नूर---------------i  जी

क्या अदा क्या जलवे तेरे नूर i

ग़ज़ल नहीं ये है जन्नत की हूर ii

Comment by विजय मिश्र on December 3, 2013 at 11:46am
बहुत बढिया उतरा है , अनेक बधाई निलेशजी .
"राह से गुज़रा पुरानी जब कभी,
याद कुछ चेहरे पुराने आ गये." -- यहाँ आपने एक जिन्दे जज्बात को संजीदगी से जज्ब किया है , मुझे बहुत प्यारी लगी .
Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 3, 2013 at 8:51am

इस ही का मसअला  यूँ हल किया है ...
रूठने का लुत्फ़ तो आया नहीं 
आप पहले ही मनाने आ गए ...
ये कैसा रहेगा ???

कृपया ध्यान दे...

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