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सारथी, अब रुको

ये जुए खोल दो

बस इसी ठांव तक

था नाता तेरा

पथ यहां से अगम

विघ्‍न होंगे चरम

बस इसी गांव तक

था अहाता तेरा

कर्म तरणी सखे

पार ले चल मुझे

सत्‍य साथी मेरे

धर्म त्राता मेरा

होम होना नियम

टूटने दे भरम

नीर नीरव धरा

क्षीर दाता मेरा

जा तुझे है शपथ

कर न मुझको विपथ

फिर मिलूंगा तुझे

है वादा मेरा

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by राजेश 'मृदु' on November 28, 2013 at 3:56pm

आदरेया महिमा जी एवं राजेश कुमारी जी, आपका हार्दिक आभार

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on November 28, 2013 at 6:40am

बेहद सुंदर भाव, अनुपम रचना बधाई स्वीकारें आदरणीय राजेश 'मृदु' जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 27, 2013 at 9:57pm

कर्म तरणी सखे

पार ले चल मुझे

सत्‍य साथी मेरे

धर्म त्राता मेरा------कर्म तरणी सखे ---उसी तरह ...सत्य साथी मेरे ..पूर्ण स्पष्ट है ..बहुत सुन्दर भाव शब्द संयोजन अति उत्तम अनुपम रचना हेतु बधाई राजेश मृदु जी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 27, 2013 at 9:18pm

आदरणीय राजेश भाई , सुन्दर भावों की अभिव्यति !!! बहुत सुन्दर रचाना !!!! आपको तहे दिल से बधाई !!!!

Comment by MAHIMA SHREE on November 27, 2013 at 9:05pm

सुंदर .. गहन अभिवयक्ति ...बधाई आपको  

Comment by राजेश 'मृदु' on November 27, 2013 at 3:12pm

आदरणीय डॉ साहब सत्‍य को बहुवचन में नहीं लिया है, सादर

Comment by राजेश 'मृदु' on November 27, 2013 at 3:11pm

आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्‍तव जी एवं सुशील जी, आपका हार्दिक आभार ।

Comment by Sushil Sarna on November 27, 2013 at 1:34pm

जा तुझे है शपथ

कर न मुझको विपथ

फिर मिलूंगा तुझे

है वादा मेरा.....gazab ke bhaavon kee yathaarthprak rachna....bahut sundr....haardik badhaaee

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 27, 2013 at 1:28pm

म्रदु जी

कर्म तरणी सखे

पार ले चल मुझे

सत्य साथी मेरे

धर्म त्राता मेरा i     बहुत अच्छे भाव है   पर सत्य बहुबचन क्यों ?

 

कविता अतीव सुन्दर हैं  i मेर्री बधाई स्वीकारे i

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