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जब जब बेटी के ससुराल से फोन आता तो भार्गव जी अन्दर तक काँप उठते. दरअसल शादी के एकदम बाद दामाद ने नई कार देने की मांग रख दी थी. उसी वजह से कई बार बिटिया मायके आ भी चुकी थी. मामूली सी पेंशन पाने वाले भार्गव जी हर बार बिटिया को समझा बुझा कर वापिस भेज देते. लेकिन इस बार ससुराल का इतना दबाव था कि बिटिया समझाने पर भी नहीं मान रही थी और ज़िद पकड़ कर बैठ गई थी. भार्गव जी को समझ नहीं आ रहा था कि वे करें तो क्या करें.

आखिर एक दिन
अचानक दामाद के लिए नई कार आ ही गई, और बेटी अगले रोज़ अपने पति के साथ नई गाड़ी में ख़ुशी ख़ुशी विदा हो गई. भार्गव जी के मन से एक भारी बोझ उतरा, लेकिन उनकी पत्नी ऐसी अनुचित मांग को पूरा करने पर बेहद नाराज़ थी.

"आज तो आपने इनकी मांग पूरी कर दी, लेकिन कल इन्होने कोई और महंगी चीज़ मांग ली तब आप क्या करोगे ?"
"चिंता काहे करती हो भगवान्, अभी तो एक और किडनी मौजूद है मेरे शरीर में."

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Comment by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on June 25, 2012 at 1:48pm

मानवीय पीड़ा और वेदना को उकेरती सुंदर लघु कथा योगराज जी। बहुत उम्दा। बधाई हो !!

Comment by Albela Khatri on June 25, 2012 at 12:32pm

योगराज भाई जी,
प्रणाम है आपको
____बहुत ही ज्वलन्त, मार्मिक और  कड़वी सचाई  वर्णन की आपने........ दुर्भाग्य ये है कि हम इसे एक लघुकथा मान कर  नहीं रह सकते....ये एक  दर्पण है जो हमारे समाज में फैले  एक घिनावने कोढ़ की तस्वीर दिखा रहा है .

____काश ! ये तस्वीर बदले.........आपकी लेखनी बधाई की पात्र है प्रभु !

Comment by Yogi Saraswat on June 25, 2012 at 10:58am

अभी तो एक और किडनी मौजूद है मेरे शरीर में.

हमें  बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती हैं ये पंक्तियाँ !  अच्छी रचना आदरणीय योगराज जी !

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on June 25, 2012 at 12:29am

"चिंता काहे करती हो भगवान्, अभी तो एक और किडनी मौजूद है मेरे शरीर में."

आदरणीय    योगराज  जी ...ये दहेज़ दानव कहाँ दिल से बोझ उतरने देते हैं..इनकी मांग रक्त बीज का रूप ले ले आती रहती है  ..आज भ्रूण  हत्या का मुख्य कारण दहेज़ ही है ...इस का हर स्तर पर विरोध होना ही चाहिए ..कथा के अंत ने दिल निचोड़ कर रख दिया ...आज बेटियों को बेटों सा पढ़ाने लिखाने के बावजूद माँ बाप का इस तरह से लाचार होना, हाथ जोड़ उनके आगे गिड़गिडाना, हमारे समाज के पतन का कारण बन रहा है ....

कब तक हम सब मौन हो सब चुपके से करते और सहते रहेंगे .....सार्थक कथा माँ बाप के त्याग और बलिदान की अनूठी दशा को दिखाती हुयी ...बधाई 
सुन्दर ...भ्रमर ५ 

 

Comment by Er. Ambarish Srivastava on June 24, 2012 at 11:13pm

आदरणीय सौरभ जी! आपका दूसरा कमेन्ट जो कि मेरी प्रतिक्रिया से सम्बंधित था, अब दिख नहीं रहा ....


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on June 24, 2012 at 9:23pm

लघु कथा की अंतिम पंक्ति हृदय को दहला गई. दहेज-दानव न जाने कितनी ही किडनियाँ पचा गया होगा.कन्या भ्रूण हत्या का मूल प्रेरक भी तो दहेज ही है.मर्मस्पर्शी कथा ने अंदर तक झकझोर कर रख दिया.

Comment by Er. Ambarish Srivastava on June 24, 2012 at 4:04pm

//यह तो आफ़्टर डिस्कशन मैटर है, आदरणीय.  इस तथाकथित दवा के दुष्परिणाम भी आज समाज में चर्चा का विषय हैं. कई-कई बेटों के एक तरह से सभी पारिवारिक सदस्य किसी बेटी के क्रूर और लोलुप बाप की सान चढ़ सलाखों के पीछे परित्यक्त हुए पड़े हैं.//

आदरणीय योगराज जी, की उपरोक्त लघुकथा अपने आप में बेहतरीन व सम्पूर्ण है | इस हेतु उन्हें हम सभी की ओर से सादर नमन ! ऐसा तो पहले ही पहले ही कहा गया है आदरणीय सौरभ जी ! मेरे भाई .....आदरणीय योगराज जी तो एक ऐसे सिद्धहस्त  कथाकार हैं जो इस लघुकथा को इस रूप में भी ढालकर और भी सशक्त व अत्यंत हृदयस्पर्शी बना सकते हैं खैर लघुकथा तो हो गयी अब तो आफ़्टर डिस्कशन ही चल रहा है ज़रा ध्यान से देखियेगा .....आदरणीया सविता सिंह जी ने भी इस बारे में कुछ लिखा है ....मेरे हुज़ूर ! दवा तो दवा ही होती है  है, कहीं फायदा है तो कहीं दुष्परिणाम ............ कोई हालत से समझौता कर लेता है ...... तो कोई संघर्ष करके कामयाब भी होता है....शेष अपनी-अपनी नियति .... इस पर अनावश्यक बहस क्या करना ....... सादर   

जय ओ बी ओ |

Comment by आशीष यादव on June 24, 2012 at 1:31pm

"अभी तो एक और किडनी मौजूद है मेरे शरीर में"

एक लाचार बाप का ये कथन समाज मे दहेज जैसी दानवी बुराई की शक्तियों के आगे बेबस होकर ही निकलता है।
एक सफल लघुकथा।

Comment by Rekha Joshi on June 24, 2012 at 11:14am

आदरणीय प्रभाकर जी ,सादर नमस्ते ,दहेज जैसी सामाजिक बुराई की आड़ में न जाने कितने परिवार इस आग में झुलसते रहें गे ,अपनी बेटी के चेहरे की इक मुस्कान के लिए एक बाप क्या नही कुर्बान कर सकता ,अपने जिस्म का एक एक अंग उस पर नौछावर कर सकता है |दिल को छू लिया इस लघु कथा ने ,आभार ,

Comment by Abhinav Arun on June 24, 2012 at 10:06am

दहेज़ जैसी विकृत सोच का आज भी यत्र तत्र जन मानस में होना और इसमें कन्या पक्ष को कामधेनु की तरह दूहना बेहद दुखद और सोचनीय है | किसी से कुछ पाने की प्रत्याशा के पृष्ठ में उसे खुद संगृहित न कर पाने की अक्षमता होती है पर हम यह नहीं समझते कि देने वाला उसे किन मूल्यों पर हासिल कर हमारी बात मानेगा | जब बात बेटी की हो तो हर पिता उसे हर हाल में सुखी देखना चाहता है | हमें विवाह योग्य परिवार को लालच के निकष पर और कठिनता से परखना होगा | ताकि आगे जीवन में यह लोभ-धार न बहती रहे और जलने मरने के दुस्वप्न न आते रहें |

इस दुखती रग पर हाथ रखने में आदरणीय  श्री योगराज जी द्वारा लिखित यह लघुकथा सफल रही है और वह भी सशक्त स्वरुप में | जब तक बुराई है समाज  को बार बार उसे रोकने का प्रयत्न करने को प्रेरित करती हैं ऐसी रचनाएँ | हार्दिक साधुवाद !!

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