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हृदय अपना जिसनें समंदर किया है-----ग़ज़ल

122 122 122 122

युगों तक जगत में वही जी सका है
हृदय अपना जिसने समंदर किया है

हक़ीक़त से नज़रें हटाने से यारो
कभी झूठ भी क्या कहीं सच हुआ है?

कहाँ रात के मानकों से हो चिपके
उजाले का वाहक तो सूरज रहा है

गरल एकता के लिए पीना होगा
सिखाती सभी को परम शिव कथा है

'सुनो आइनो तुम भी पढ़ लो सुकूँ से
कि 'पंकज' ने सब सामने रख दिया है'  (आदरणीय बाऊजी समर कबीर द्वारा संशोधित)

मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Harash Mahajan on April 22, 2018 at 9:20am

बहुत ही बेहतरीन अहसास जनाब पंकज जी ।

अच्छे सृजन हेतु बधाई ।

सादर ।

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on April 21, 2018 at 7:09pm

आदरणीय नीलेश सर सादर अभिवादन, सुझाव पर अमल करता हूँ अभी।

पिछली ग़ज़ल में दोष दूर करके भेज दिया है मैंने।

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on April 21, 2018 at 7:08pm

आदरणीय शेख शहजाद सर सादर आभार

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 21, 2018 at 5:09pm

आ. पंकज जी,
अच्छी ग़ज़ल हुई    है ..
अंतिम मिसरा एक   पुन: देख लें 
सादर 

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on April 21, 2018 at 4:17pm

जिस तरह सूरज में उजाला है, उसी तरह दिल में सागर हो, तो क्या कहने। बेहतरीन सृजन के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय पंकज कुमार मिश्र ' वात्स्यायन' जी।

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