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जानें क्या बात है आज कल, दर्द अपना छिपाने लगा---ग़ज़ल

212 212 212 212 212 212

जानें क्या बात है आज कल, दर्द अपना छिपाने लगा
हाल उसका पता कीजिए, वो बहुत मुस्कुराने लगा

हम उसे बस यूँ ही चारागर, झूठे ही तो नहीं लिख दिए
एक बेजान से बुत में भी, वो जो धड़कन चलाने लगा

उसको पागल नहीं जो कहें, तो भला नाम क्या और दें
एक निर्जन नगर में कोई, स्वप्न के घर बसाने लगा

शुक्रिया आपका शुक्रिया है ये तोहफा बहुत कीमती
देखिए तो विरह का असर शेर मैं गुनगुनाने लगा

उम्र भर की ख़लिश के सिवा कुछ भी नफ़रत से मिलना नहीं
मन से कूड़ा हटा दीजिए, सबको पंकज सिखाने लगा

मौलिक-अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on April 21, 2018 at 3:08pm

आदरणीय नीलेश सर आज इसे अभी सुधारने जा रहा हूँ। तब तक एक नई ग़ज़ल पर नज़रे इनायत करें

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on April 21, 2018 at 3:07pm

आदरणीय बाऊजी आपने सही कहा, मैं लगातार ढूंढ रहा था, लेकिन शुतरगुरबा का दोष नहीं मिला, वही यहां कहने आया, आपका आशीर्वाद तब तक आ चुका था। 

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on April 21, 2018 at 3:05pm

आदरणीय हर्ष जी सादर आभार

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on April 21, 2018 at 3:05pm

आदरणीय नीलम जी सादर आभार

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 21, 2018 at 2:17pm

ओह मैं तक़ाबुले रदीफ़ को शुतुरगुरबा लिख गया

Comment by Samar kabeer on April 21, 2018 at 10:28am

अज़ीज़म पंकज कुमार मिश्रा आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।

शेष गुणीजन कह चुके हैं,अंतिम दोनों अशआर में शुतरगुर्बा नहीं है,बल्कि तक़ाबुल-ए-रदीफ़ की सूरत बन गई है ।

Comment by Harash Mahajan on April 20, 2018 at 6:32pm

आदरणीय पंकज जी

इस सुंदर प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत बधाई ।

सादर ।

Comment by Neelam Upadhyaya on April 20, 2018 at 2:48pm

आदरणीय पंकज कुमार मिश्रा जी, बहुत ही खूबसूरत गज़ल के लिए मुबारकबाद।

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on April 20, 2018 at 2:28pm

आदरणीय नीलेश सर, आपका सुझाव उचित है, जल्दी ही बदलता हूँ

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on April 20, 2018 at 2:28pm

डॉ आशुतोष सर, बहुत बहुत आभार, लास्ट में एक 2 लिखते समय बढ़ गया

कृपया ध्यान दे...

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