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उस से मुझको सच में कोई शिकायत भी नही (ग़ज़ल)

2122, 212, 2122, 212

उससे मुझको सच मे कोई शिकायत भी नही,
हाँ मगर दिल से मिलूँ अब ये चाहत भी नही।

इस बुरुत पर ताव देने का मतलब क्या हुआ,
गर बचाई जा सके खुद की इज्जत भी नही।

अब अँधेरा है तो इसका गिला भी क्या करें,
ठीक तो अब रौशनी की तबीअत भी नही।

आती हैं आकर चली जाती हैं यूँ ही मगर,
इन घटाओं मे कोई अब इक़ामत भी नही।

जुल्म सहने का हुआ ये भी इक अन्जाम है,
अब नजर आँखों में आती बगावत भी नही।

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Naveen Mani Tripathi on April 21, 2017 at 12:10pm
वाह बहुत खूब ।
Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 20, 2017 at 8:32pm

बहुत खूब आ. हेमंत जी...
अच्छी ग़ज़ल के लिये बधाई...

Comment by Samar kabeer on April 20, 2017 at 6:05pm
जनाब हेमन्त कुमार जी आदाब,बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
बाक़ी जनाब रवि जी बता ही चुके हैं ।
Comment by Samar kabeer on April 20, 2017 at 6:03pm
जी,रवि जी 'शिकस्ते नारवां'नहीं,"शिकस्त-ए-हर्फ़-ए-नारवा',जी हाँ गुंजाइश है ।
Comment by Hemant kumar on April 20, 2017 at 2:43pm
आदरणीय सर प्रणाम!
ग़ज़ल की सराहना के लिए एवं सुधारात्मक सुझाव देने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया।
"अब नजर आखों में आती बगावत भी नही" से सुधार कर रहा हूँ।
चौथे शेर के सानी मिसरे मे "बरसती"को सही वज्न में लाने की कोशिश करूंगा...बस इसी तरह स्नेह बनाएँ रखें
आपका पुनः धन्यवाद!
सादर.....
Comment by Ravi Shukla on April 20, 2017 at 1:19pm

एक सवाल और है जो भी गुण्‍ाी जन इस गजल पर आएं कृपया बताएं कि इस बहर में शिकस्‍ते नारवां की गुजांइश  है या नहीं । हमें पढने में लग रहा है ।

Comment by Ravi Shukla on April 20, 2017 at 1:15pm

आदरणीय हेमंत जी  अच्‍छी  गजल कही है आपने मुबारकबाद कुबूल करें ।

आखिरी शेर पर नज्र और नजर में हमें कुछ संशय है आप शायद देखने की बात कर रहे है आपने नज्र लफ्ज लिया है जिसका अर्थ अता करना है देना है । शेर के हिसाब से नजर उपयुुक्‍त हो सकता है

अब नजर आखों में आती बगावत भी नहीं  इस पर भी विचार कर सकते है

चौथे शेर में सानी मिसरें में पहला रुक्‍न देख ले बरसती 122 के वज्‍न में है और अपनी बहर 2122 है । सादर

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