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जानवर होने का नाटक , भूँक भूँक के -- अतुकांत ( गिरिराज भंडारी )

जानवर होने का नाटक भूँक भूँक के

**********************************

जंगल में

जानवरों में फँसा हुआ मैं

जानवर ही लगता हूँ , व्यवहार से

पहनी नज़र में

ऐसा व्यवहार सीख लिया है मैनें

जिससे इंसानियत शर्मशार भी न हो

और जानवर भी लग जाऊँ थोड़ा बहुत

लगना ही पड़ता है , अल्पमत में हूँ न ,

 

और काम बाक़ी है , एक बड़ा काम

मुझे तलाश है इंसानों की

जो छुप गये लगते हैं , भय से ,

जानवरों में एकता जो है , बँटे हुये इंसान का डर भी स्वाभाविक है 

कुछ ने तो नस्ल परिवर्तन भी करा लिया है

कहाँ और कैसे खोजूँ , कैसे एक साथ कर लूँ इंसानो को ?

काम भारी है , खोज लूँ तो बहुमत हो जाये , इंसानो का 

क्योंकि , गिनती मे कम नहीं हैं हम , बँट गये हैं

 

मैं उनके सामनें ,

जो, सच न सहन कर सकें , पचा न सकें

सच ज़ाहिर करना सही नहीं समझता

और न ही

मैं ज़हर पीने वालों मे से नहीं हूँ

पिलाऊँगा उनको

जो हक़दार हैं ज़हर के

मै हक़ को हक़दार तक पहुँचाने का बीड़ा उठाया है

बस , साधन मेरा अपना होगा , तरीका मेरा अपना होगा

और समय,  जितना लगे  , या जीते जी

तुमने मेरे भूँकने , दहाड़ने , चिंघाड़ने ,

मिमियाने से ,

मुझे जानवर समझ कर कुछ गलत नहीं किया

ये तो तमगा है

मेरे असली जैसे नकली पन के लिये

 

तब तक के लिये ,

जब तक इंसान बहुमत में न आ जायें

और किसी को न करना पड़े कभी भी

जानवर होने का नाटक

भूँक भूँक के 

***************  

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 5, 2015 at 4:33pm

आदरणीय श्री सुनील  भाई , हौसला अफज़ाई का बेहद शुक्रिया ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 5, 2015 at 4:32pm

आदरणीय समर कबीर भाई , रचना के अनुमोदन के लिये आपका बहुत शुक्रिया ।

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on May 5, 2015 at 9:55am

मै हक़ को हक़दार तक पहुँचाने का बीड़ा उठाया है

बस , साधन मेरा अपना होगा , तरीका मेरा अपना होगा

और समय,  जितना लगे  , या जीते जी.....गजब की कलम चलाई ,सर आपने. इस शानदार प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई

Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on May 5, 2015 at 7:38am

बहुत बढ़िया प्रस्तुति एक सन्देश देती हुई ...बधाई जनाब ...सादर 

Comment by Dr. Vijai Shanker on May 5, 2015 at 2:02am
मनुष्य जो है , वही रहे , तो उसकी तर्रकी स्वतः है , पर यहां तो जीवन का अस्तित्व ही खतरे में पड़ रहा है,
अादमी आदमी छोड़ सबकुछ बन रहा है,
इंसानियत से वाकफियत खो रहा है ,
उसको राक्षसों में ढूंढ रहा है ,
खुद जानवर बन कर
सुरक्षित अनुभव कर रहा है ,
आदमी जानवर बन रहा है।
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी , आपके लेखन का दायरा बढ़ रहा है, इस प्रस्तुति पर बहुत बहुत बधाई,सादर।
Comment by shree suneel on May 5, 2015 at 1:10am
काम भारी है , खोज लूँ तो बहुमत हो जाये , इंसानो का
क्योंकि , गिनती मे कम नहीं हैं हम , बँट गये हैं/
सही बात आदरणीय.. . अर्थपूर्ण रचना के लिए बधाईयाँ..
Comment by Samar kabeer on May 4, 2015 at 11:42pm
जनाब गिरिराज भंडारी जी,आदाब,कमाल कर दिया भाई,एक के बाद एक अच्छी रचना,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं |

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