२१२२ २१२२२ २१२
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हो गया  है  सत्य  भी मुँहचौर  क्या
या  दिया हमने ही उसको कौर क्या
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कालिखें  पगपग  बिछी  हैं निर्धनी 
तब  बताओ  भाग्य होगा गौर क्या
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मार  डालेगा  मनुजता  को  अभी
जाति धर्मो का उठा यह झौर क्या
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हैं  परेशाँ   आप   भी   मेरी   तरह 
धूल पग की हो गयी सिरमौर क्या
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फूँक  दे  यूँ  शूल  जिनके घाव को
मायने  रखता है  उनको धौर क्या
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प्यार  माथे  का  पसीना  पोछ दे
राहतें  इससे  बड़ी  हों  और क्या
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आज इस पथ पाँव कल को फिर कहीं 
इक ‘मुसाफिर‘  आदमी  का  ठौर क्या
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मौलिक व अप्रकाशित
Comment
kya baat hai.... Bht badiya..... Waaaaah
हैं  परेशाँ   आप   भी   मेरी   तरह 
धूल पग की हो गयी सिरमौर क्या   ----- बहुत खूब आदरणीय , बधाइयाँ ।
आदरणीय बागी जी से मै भी सहमत हूँ , शब्द , मुँहजोर या मुँहचोर सही लगता है ।
मुंहचौर शब्द मैंने नहीं सुना, हाँ मुंहचोर शब्द जरुर जाना पहचाना है
मतला कमाल का हुआ है
कालिखें  पगपग  बिछी  हैं निर्धनी 
तब  बताओ  भाग्य होगा गौर क्या...... गौर को उजला के अर्थ में अभी लिया तो शेर पढ़कर मज़ा आ गया 
हैं  परेशाँ   आप   भी   मेरी   तरह 
धूल पग की हो गयी सिरमौर क्या............ मोतियों से भरी ग़ज़ल का हीरा ... बड़ा शेर 
आज इस पथ पाँव कल को फिर कहीं 
इक ‘मुसाफिर‘  आदमी  का  ठौर क्या...... क्या खूब मक्ता हुआ है..... दरवेश हो गए मुसाफिर  क्या कहिये .... दिल जीत लिया इस मकते ने ........... दिल से दाद कुबूल कीजिये .... 
हैं  परेशाँ   आप   भी   मेरी   तरह 
धूल पग की हो गयी सिरमौर क्या,,,,,,,,,behat khoob laga 
आदरणीय लक्ष्मण जी..प्यार  माथे  का  पसीना  पोछ दे
राहतें  इससे  बड़ी  हों  और क्या......क्या कहने ,हार्दिक बधाई !
आदरणीय लक्ष्मण जी ..काफिये में नूतनता लगी ..बस बहृ में २१२२२ नहीं समझ में आया इस शानदार रचना के लिए बधाई सादर
प्यार  माथे  का  पसीना  पोछ दे
राहतें  इससे  बड़ी  हों  और क्या
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आज इस पथ पाँव कल को फिर कहीं 
इक ‘मुसाफिर‘  आदमी  का  ठौर क्या---------बेहतरीन गजल i मुबारक हो i
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