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ग़ज़ल -- ये गलियाँ शाह राहों से मिलेंगी ( गिरिराज भंडारी )

1222      1222      122  

कहीं अब  झाँकती है रोशनी भी

कहीं बदली लगी  थोड़ी हटी भी

 

शजर अब छाँव देने लग गये हैं

फ़िज़ा में गूंजती है अब हँसी भी

 

निशाँ पत्थर में पड़ते लग रहे हैं

अभी है रस्सियों में जाँ बची भी

 

जहाँ चाहत मरी घुट घुट, वहीं पर

नई चाहत कोई दिल में पली भी

 

मिलेंगी शाह राहों से ये गलियाँ

गली से रिस रही है ये खुशी भी

 

मरे से ख़्वाब करवट ले रहे हैं

नज़र आने लगी है ज़िन्दगी भी

 

ये कैसा वक़्त है, क्या नाम दूँ मै

ख़ुदी भी है सलामत , बेख़ुदी भी

 ******************************** 

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 27, 2014 at 12:03am

ये कैसा वक़्त है, क्या नाम दूँ मै

ख़ुदी भी है सलामत , बेख़ुदी भी..............वाह! क्या बात है गजब गजब

बहुत ही बेहतरीन गजल आदरणीय गिरिराज जी, तहे दिल से बधाई स्वीकारें


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 26, 2014 at 11:30pm

आदरणीय बड़े भाई विजय भाई , उत्साह वर्धन और सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 26, 2014 at 9:05pm

मित्र

एक और सुन्दर गजल पर बधायी i  क्या उम्दा है आख़िरी शेर  i


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 26, 2014 at 7:34pm

आदरणीया कुंती जी , सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 26, 2014 at 7:33pm

आदरणीय विजय शंकर भाई , ग़ज़ल पर आपकी उत्साह वर्धक प्रतिक्रिया के लिये आपका हार्दिक आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 26, 2014 at 7:32pm

आदरणीय अभिनव अरुण भाई , ग़ज़ल को आपकी सराहना मिलना मेरे लिये बहुत खुशी का कारण है , आपका तहे दिल से शुक्रिया ।

Comment by coontee mukerji on June 26, 2014 at 7:31pm

 

मरे से ख़्वाब करवट ले रहे हैं

नज़र आने लगी है ज़िन्दगी भी....क्या बात है.

Comment by Dr. Vijai Shanker on June 26, 2014 at 7:25pm
मरे से ख़्वाब करवट ले रहे हैं
नज़र आने लगी है ज़िन्दगी भी
बहुत ही सुन्दर आ o गिरिराज भंडारी जी , प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत बधाई।
Comment by Abhinav Arun on June 26, 2014 at 4:51pm
आ. श्री गिरिराज जी --लाजवाब शेर हुए हैं शानदार ...
निशाँ पत्थर में पड़ते लग रहे हैं

अभी है रस्सियों में जाँ बची भी



जहाँ चाहत मरी घुट घुट, वहीं पर

नई चाहत कोई दिल में पली भी



ये गलियाँ शाह राहों से मिलेंगी

गली से रिस रही है ये खुशी भी



मरे से ख़्वाब करवट ले रहे हैं

नज़र आने लगी है ज़िन्दगी भी
हार्दिक बधाई इस ग़ज़ल के लिए !

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