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कर्मजली (लघुकथा) रवि प्रभाकर

“अबे ओए,  क्या तू ही दीनू है?” अपने दलबल के साथ अचानक आ धमके थानेदार ने अपनी रौबीली आवाज में पूछा
”जी सरकार मैं ही दीनू हूँ ......”
“क्या यही वो लड़की है जिसके साथ आज जबरदस्ती हुई है?” कोने में सिसकती लड़की की तरफ देखकर थानेदार की आंखों में गुलाबी से डोरे तैरने लगे।
“जी सरकार..........”
“जी सरकार के बच्चे... शिकायत क्यों नहीं की थाने में आकर....”
“जी, वो मुखिया जी ने समझौता..... ”
”देखिए साहिब..... कितने सारे रूपये” कांस्टेबल ने चारपाई की नीचे रखे कनस्तर में से नोट निकालते हुए कहा
“साले...... लड़की से धंधा करवाता है, और बड़े आदमियों को ब्लैकमेल करता है....।”
“नहीं सरकार ..... वो तो ......” दीनू की तो जैसे घिग्गी ही बंध गई।
“कब्जे में ले लो सारे पैसे, और बिठायों छोकरी को जीप में “पूछताछ” के लिए."

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by vijay nikore on June 20, 2014 at 8:32am

बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति। बधाई, आदरणीय रवि जी।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 19, 2014 at 8:34am

एक समय से होता आया है जाने कबतक ऐसा ही होता रहेगा.. मनुष्य मछलियाँ नहीं है, लेकिन व्यवहार अलग भी नहीं करता. जोरू की लुगाई या बेटियाँ ऐसे ही जीती हैं.

इस लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई रवि भाई.

एक अरसे बाद आपको मंच पर देखना भला लगा. 

शुभेच्छाएँ

Comment by Ravi Prabhakar on June 18, 2014 at 7:28pm

आदरणीय कल्पाना रामानी जी, विजय मिश्र जी, महिमा श्री जी, जितेन्द्र जी, अन्नपूर्णा जी, गिरिराज जी व लक्ष्मण जी लघुकथा को पढ़ने के लिए आपका धन्यवाद।

Comment by Ravi Prabhakar on June 18, 2014 at 7:26pm

आदरणीय राजेश कुमारी जी
    सादर ! आप सरीखे विद्धानों की टिप्पणी सदैव उत्साहित करती है। धन्यवाद।

Comment by Ravi Prabhakar on June 18, 2014 at 7:22pm

आदरणीय डाॅ. प्राची सिंह जी,
    सादर ! लघुकथा के मर्म को समझने के लिए आभार। आशा है कि भविष्य में भी आपका स्नेह मिलता रहेगा ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on June 16, 2014 at 9:53pm

उफ्फ !!!!

ऐसा भी कुछ घिनौने सच हो सकते हैं.... 

दीनू मुखिया पुलिस....के अपने अपने स्वार्थों में पिस तो बेचारी लडकी गयी ...और जाने कब तक ..

मर्मस्पर्शी लघुकथा आदरणीय रवि प्रभाकर जी 

Comment by कल्पना रामानी on June 16, 2014 at 8:16pm

बहुत मार्मिक, इंसान कितना गिर चुका है उफ! ...एक सशक्त रचना के लिए बधाई आपको

Comment by विजय मिश्र on June 16, 2014 at 5:57pm
किस दौर में हैं हम ! आजका सच इससे भी घिनौना है |शब्द सज्जा सुंदर है और विषय मर्म को वैधता है |अतिसामयिक |
Comment by MAHIMA SHREE on June 15, 2014 at 4:00pm

बेहद मार्मिक , समाज का घृणित चेहरा देख कर क्रोध तो आता है पर अंपनी विवशता का क्या करें ..सादर

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 14, 2014 at 11:27am

बहुत अच्छी लघुकथा, सच! हवस में इंसान क्या नही कर गुजरता है. क्या सही? क्या गलत ? कोई फर्क नही. लघुकथा पर आपको हार्दिक बधाई आदरणीय रवि जी

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