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दोस्ती .... (विजय निकोर)

दोस्ती

 

देखता हूँ सहचर मीत मेरे

सहसा, दोस्ती की निगाहें हैं झुकी हुई

पलकें भीगी

घिरते आए संत्रस्त ख़यालों पर

खरोंचते-उतरते संतप्त ख़याल ...

फिसलते भीगे गालों पर

दोस्ती के वह सुनहले रंग

बिखरते गीले काजल-से

 

कहाँ हैं दोस्ती की रोश्नी की

वह अपरिमय चिनगियाँ

बनावटी थीं क्या ? नहीं, नहीं,

चमकती थीं वह अपेक्षित आँखों में ...

रुको, माप लूँ मैं बची हुई थोड़ी-सी

उस चमक की थाहें

शायद उसी को सोचते, शा-य-द

नींद आ जाए,

कि खुरदुरी दूरियों को पार कर

भीतर के उन आवेगों में

गिरफ़तार

अँधियारे वीराने में भी

बहला लूँ

अब हुए लावारिस बेकाबू सपनो कों

आँख के खुलने तक, या क्षण-पल

साँस के रुकने तक ...

 

--------

- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

Views: 760

Comment

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Comment by vijay nikore on January 20, 2014 at 1:32pm

 

आदरणीय वैद्य नाथ जी, रचना की सराहना के लिए आपका आभारी हूँ।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on January 20, 2014 at 1:28pm

//कितनी सुंदरता से भावों को अपनी रचना मे ढाला है//

सराहना के लिए आपका धन्यवाद, आदरणीया अन्नपूर्णा जी।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on January 20, 2014 at 1:26pm

// जवाब नहीं आपका क्या भाव है आपके……बहुत गहरी बात ....सच दिल को छू गयी ....//

 

इतनी सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीया प्रियंका जी।

 

सादर,

विजय निकोर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 10, 2014 at 11:44pm

होता है .. होता है ! नम आखों में अनकहे शब्द झिलमिलाते हैं और कहते न कहते चू पड़ते हैं !!

इस नरम प्रस्तुति के लिए बधाई, आदरणीय

Comment by AVINASH S BAGDE on January 7, 2014 at 11:03pm

.भावों को बेहद सुन्दरता से पिरोया आपने 

गहन अनुभूतियों का सफल प्रक्षेपण 

भाई विजय जी , बहुत सुन्दर !! 

खूब लाजवाब

Comment by MAHIMA SHREE on January 7, 2014 at 8:27pm

वाह .. बेहद गहन अनुभूतियों का सफल प्रक्षेपण ..हार्दिक बधाईयाँ... सादर

Comment by बृजेश नीरज on January 7, 2014 at 1:21pm

वाह! बहुत ही सुन्दर! आपको हार्दिक बधाई!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on January 6, 2014 at 10:50pm

कहाँ हैं दोस्ती की रोश्नी की

वह अपरिमय चिनगियाँ

बनावटी थीं क्या ? नहीं, नहीं,

चमकती थीं वह अपेक्षित आँखों में ...

रुको, माप लूँ मैं बची हुई थोड़ी-सी

उस चमक की थाहें..........................भावों को बेहद सुन्दरता से पिरोया आपने बधाई स्वीकारें आदरणीय विजय जी

Comment by विजय मिश्र on January 6, 2014 at 6:25pm
अतीव सुंदर ,भावों में प्रोढ़ता ओढ़े पुनः एक हृदयस्पर्शी रचना के लिए अंतस से साधुवाद और नववर्ष की शुभकामनाएँ भी विजयजी |
"पलकें भीगी
घिरते आए संत्रस्त ख़यालों पर
खरोंचते-उतरते संतप्त ख़याल ...
फिसलते भीगे गालों पर
दोस्ती के वह सुनहले रंग
बिखरते गीले काजल-से | " - आपके शब्द हिरनी सी कोमल भावों में कुलाँचे लगाने में बेहद माहिर हैं और पाठक इन्हें समेटते-समेटते खुद में ही बिखरने लगता है|नए साल के इस प्रसाद से अनुगृहित हुआ ,धन्यवाद |
Comment by coontee mukerji on January 6, 2014 at 5:55pm

आपकी रचनाएँ अक्सर एक कहानी कहती हुई चलती है और पाठक  अनायास ही उस कहानी से जुड़ता चला जाता है.अतीत के कुएँ से  गूँजती कुछ आवाज़ें इंसान कहाँ तक बच सकता है.......

कि खुरदुरी दूरियों को पार कर

भीतर के उन आवेगों में

गिरफ़तार

अँधियारे वीराने में भी

बहला लूँ

अब हुए लावारिस बेकाबू सपनो कों

आँख के खुलने तक, या क्षण-पल

साँस के रुकने तक .......हार्दिक बधाई आपको  आदरणीय. सादर.

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