1222    1222    1222    1222
 
 किया माथे तिलक झट से कहा नाकाम भी मुझको
 बहुत  ठोका  लुहारों  सा  दिया आराम  भी मुझको
*
 गिरा तो भी  समझ मेरी  न आयी  शातिरी उसकी
 बिठाया  पास  भी अपने किया बदनाम भी मुझको
*
 पता  है  साथ  उसके तो  न आया  था कभी  सूरज
 जलाता क्यो न जाने फिर शरद का घाम भी मुझको
*
 हसाता  चोट  देकर  भी  बड़ा  जालिम  खुदा  पाया
 रूला  देता  न मरने  का सुना  पैगाम  भी  मुझको
*
 अजब सी रहमतें  उसकी  अजब ही  सब सजाएं हैं
 न रखता भोर  के काबिल न  देता शाम भी मुझको
*
 बनाना चाहता  है क्या ‘मुसाफिर ’ मैं न समझा ये
 सिखाता  रावणों  के  गुर  पुकारे  राम  भी  मुझको
 मौलिक व अप्रकाशित
Comment
kaafi khubsurat andaz-e-bayan hai sahab...
बहुत शान्दार कंट्रास्ट निबाहने की कोशिश हुई है, आदरणीय लक्ष्मण भाई. बधाई स्वीकार करें.
शुभ-शुभ
बहुत शानदार ग़ज़ल हुई है... ये शैली बहुत पसंद आयी
सभी अशआर पसंद आये
हार्दिक बधाई
अशआर में जो कंट्रास्ट पैदा किया गया है लुत्फ़ को कई गुना बढ़ा रहा है ... भी मुझको रदीफ़ अपना कमाल दिखा रही है 
हर शेर पर ढेरो दाद
सुंदर गजल बहुत बधाई आपको ।
बहुत बढ़िया लक्ष्मण जी बहुत बहुत बधाई आपको
गिरा तो भी  समझ मेरी  न आयी  शातिरी उसकी
 बिठाया  पास  भी अपने किया बदनाम भी मुझको.............. यह शेर दिल को छू गया
हार्दिक बधाई आपको आदरणीय लक्ष्मण जी
बनाना चाहता है क्या ‘मुसाफिर ’ मैं न समझा ये
 सिखाता रावणों के गुर पुकारे राम भी मुझको............... बढ़िया .................. बधाई .
आदरणीय अच्छी गजल के लिए बधाई
नादिर भाई के कहे का संज्ञान कीजिये
हसाता  चोट  देकर  भी  बड़ा  जालिम  खुदा  पाया
रूला  देता  न मरने  का सुना  पैगाम  भी  मुझको..........??????
आदरणीय लक्ष्मण जी कुछ अस्पष्ट सा लग रहा है
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