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All Blog Posts Tagged 'ग़ज़ल' (449)


मुख्य प्रबंधक
मेरी दूसरी ग़ज़ल

दो सीधे से सवाल का जवाब दोस्तों ,

क्यों पी रही है मुझको ये शराब दोस्तों ,



मैने शराब पी थी गम भुलाने के लिए

बढ़ने लगी है क्यों मेरी अजाब दोस्तों,



माना कि पी गया मै जश्ने यार मे बहुत ,

डर है जिगर न दे कहीं जवाब दोस्तों ,



इतनी ही गर हसीं है ये प्याले की महेबुबा,

फिर क्यों मिला रहे सुरा में आब दोस्तों,



मैने जवानी जाम संग बितायी शान से,

चर्चा हुई बुढ़ापे की ख़राब दोस्तों ,



कितनी ही मिन्नतों के बाद जिंदगी मिली,

ना… Continue

Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 7, 2010 at 1:00am — 27 Comments


प्रधान संपादक
ग़ज़ल-6 (योगराज प्रभाकर)

कई बरसों के बाद घर मेरे चिड़ियाँ आईं

बाद मुद्दत ज्यों पीहर में बेटियाँ आईं !



ज़मीं वालों के तो हिस्से में कोठियाँ आईं,

बैल वालों के नसीबों में झुग्गियाँ आईं !



जाल दिलकश बड़े ले ले के मकड़ियां आईं

कत्ल हों जाएँगी यहाँ जो तितलियाँ आईं !



झोपडी कांप उठी रूह तलक सावन में,

ज्योंही आकाश पे काली सी बदलियाँ आईं !



ऐसे महसूस हुआ लौट के बचपन आया,

कल बड़ी याद मुझे माँ की झिड़कियां आईं !



बेटियों के लिए पीहर में पड़ गए ताले

हाथ… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on August 2, 2010 at 9:00pm — 7 Comments


प्रधान संपादक
ग़ज़ल - 5 (योगराज प्रभाकर)

उसका हर गीत ही अखबार हुआ जाता है,
क्यों ये फनकार पत्रकार हुआ जाता है !

जबसे आशार का मौजू बना लिया सच को,
बेवजन शेअर भी शाहकार हुआ जाता है !

अपने बच्चों को जो बाँट के खाते देखा ,
दौर ग़ुरबत का भी त्यौहार हुआ जाता है !

बेल बेख़ौफ़ हो गले से क्या लगी उसके
बूढा पीपल तो शर्मसार हुआ जाता है !

हरेक दीवार फासलों की गिरा दी जब से
सारा संसार भी परिवार हुआ जाता है !

Added by योगराज प्रभाकर on July 16, 2010 at 9:00pm — 5 Comments


मुख्य प्रबंधक
पहली ग़ज़ल

वो इक अलाव सा जिगर में लिए फिरते हैं ,

चिराग महल के झोपडी के खूँ से जलते हैं !



बंद भारत ने ठंडे कर दिए चूल्हे लाखों ,

है किस तरह की जंग रहनुमा जो लड़ते हैं



रोटियां सेंकते लाशों पे आपने लालच की,

ये कर्णधार मुझे तो जल्लाद लगते हैं !



वो ढूँढते है भगवान को मंदिर की ओट से,

हमारी आस्था ऐसी जो चक्की भी पूजते हैं !



अपना जाना जो उन्हें जान जाएगी "बागी"

वो ज़हरी नाग हैं जो आस्तीं में रहते है !



( मैं आदरणीय योगराज प्रभाकर जी ,… Continue

Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 10, 2010 at 11:30pm — 10 Comments

ग़ज़ल-४

ज़िन्दगी जो भी तेरे अहकाम रहे

..वो सब के सब मिरे मुक़ाम रहे |



अय्यार कम नहीं हर बशर-ए-मौजूदा

पर तेरी जिद के आगे सब नाकाम रहे |



हर रास्ता खत्म था इक दोराहे पर..

क्या कहें किस तलातुम बेआराम रहे |



रंग-ए-खूं की खबर हर सम्त थी फैली

हम फिर भी गफ़लत में सुबहोशाम रहे |



इक मौत ही है जो बेख़ौफ़ तुझसे

वरना जो लड़े गुजरे अय्याम रहे |



हर शख्स ख्वाहिशमंद है केवल इतना

कुछ न हो बस वो चर्चा-ए-आम रहे |



सतर ना छुप सकेगी… Continue

Added by विवेक मिश्र on July 9, 2010 at 3:30pm — 6 Comments


प्रधान संपादक
ग़ज़ल - 4 (योगराज प्रभाकर)

मेरे बच्चों को खाना मिल गया है,

मुझे सारा ज़माना मिल गया है !



जबसे तेरा ये शाना मिल गया है,

आंसुयों को ठिकाना मिल गया है !



मेरा पडौस परेशान है यही सुनकर

मुझे क्यों आब-ओ-दाना मिल गया है!



तेरे आशार और मुझको मुखातिब,

मुझे मानो खजाना मिल गया है !



कलम उगलेगी आग अब यकीनन,

जख्म दिल का पुराना मिल गया है !



मेरे आशार और है ज़िक्र उनका,

दीवाने को दीवाना मिल गया है !



लुटेंगीं अस्मतें बहुओं की अब तो,

मेरे… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on July 4, 2010 at 11:30pm — 10 Comments


प्रधान संपादक
ग़ज़ल नo- ३ (योगराज प्रभाकर)

ये काग़ज़ पे लिखी तरक्कियां, कुछ और कहती हैं

मगर लाखों करोड़ों झुग्गियां, कुछ और कहती हैं !



बड़ा फराख दिल है शहर तेरा शक नहीं मुझ को ,

ये हर-सू बंद पड़ी खिड़कियाँ, कुछ और कहती हैं !



तेरा दा'वा है कि अमन-ओ-सकूं है शहर में सारे,

मगर अख़बार की ये सुर्खियाँ, कुछ और कहती हैं !



मुझे यकीं नहीं आता बहार आ गयी, क्यों कि

उदास चेहरे लिए तितलियाँ, कुछ और कहती हैं !



मुझे गुमान था कि मैं बना हूँ खुद के ही दम से,

मेरे बापू की बूढी हड्डियाँ,… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on May 10, 2010 at 10:30am — 13 Comments


प्रधान संपादक
ग़ज़ल नo-२ (योगराज प्रभाकर)

शाहराह-ए-ज़िन्दगी पे अँधेरा ज़रूर था,

पर उस के पार दिन का भी डेरा ज़रूर था !



ये मैं ही था जो तीरगी में मुब्तिला रहा,

उसने तो रौशनी को बिखेरा ज़रूर था !



जेहन-ओ-ख्याल में बसा था और ही कोई,

हाँ, ले रहा वो सातवाँ फेरा ज़रूर था !



आंसू छुपा रहा था जो चश्मे कि आड़ में,

बिछुड़ा हुआ साथी कोई, मेरा ज़रूर था !



मीलों तलक तवील था उस घर में फासला

वो घर नहीं था, रैन बसेरा ज़रूर था !



जो कौड़ियों के मोल लूट ले गया खिज़ां

वो… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on May 5, 2010 at 10:30pm — 15 Comments

ऐ खुदा इतना भी कमाल न कर

ऐ खुदा इतना भी कमाल न कर
ज़िंदगी में मौत सा हाल न कर
काँटों को इतनी तरज़ीह देकर
यूं फूलों का जीना मुहाल न कर
ये दुनिया इक मुसाफ़िर ख़ाना
इसमें बसने का ख़याल न कर
ग़मे दहर का झगड़ा लेकर
तूं अपने घर में बवाल न कर
दर्द का दरमाँ तड़फ ही है
करके मुहब्बत मलाल न कर
आग बहुत दुनिया में,पानी कम
ये आंसू बेवज़ह पैमाल न कर
याद कर वो माज़ी के मंज़र
तूं अपना बरबादे-हाल न कर
चांदनी की चाह में यूं न पगला
इन अंधेरों से विसाल न कर

Added by asha pandey ojha on May 4, 2010 at 1:30pm — 16 Comments

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