है यही पाथेय मेरा
एक नन्हा सा अकेला
पल कि जिसमें एक मैं हूँ एक तुम हो
दूर तक कोई नहीं है
और भीतर झिलमिलाते कोटि दीपक
टिमटिमाते हैं सितारे और सूरज भी दमकते
फूटते निर्झर सहस्रों
अति सघन हिमरेख गल कर बह निकलती,
चाह कर भी छुप न पाती
हैं उमंगें दो दिलों की
देह आगे और आगे ही सरकती
चाहती अस्तित्व का अंतिम सिरा
छू कर पिघलना,
देखते हैं नैन ऐसे
आ गया हो ज्वार जैसे
और फिर यूँ बंद होते
लाज में लिपटे अचानक
दूर परबत के शिखर…
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Added by Ravi Prakash on November 19, 2016 at 2:24pm —
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हुकूमतें लाजवाल
हाकिम कामयाब
जनता त्रस्त बेहाल ,
अपने अपने नसीब हैं।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Dr. Vijai Shanker on November 7, 2016 at 7:57am —
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कोई सूली पर चढ़े
और मसीह बने
कोई वन को गए
और राम बने
कोई सीता पर मरे
और रावण बने
अपमानित हुई नारी
और भीष्म बने
राहुल को त्यागे
और गौतम बने
नर्क भी यहीं है
स्वर्ग भी यहीं है
इतिहास मरने
से पहले है बनता
धरती पर ही
अपने करमों से
कुछ राम बने
और रावण बने
मौलिक अप्रकाशित
Added by S.S Dipu on October 5, 2016 at 1:11am —
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“उत्कर्ष“
एक टिमटिमाते, बुझते तारे का उत्कर्ष,
देख लोग, होते चमत्कृत,
लेकिन वे बूझने में असमर्थ,
उसका नैपथ्य में छिपा,
गहन, सतत संघर्ष,
रुपहली चमक के पीछे छिपे,
कालिमा के सुदीर्घ, लंबे वर्ष,
फिर भी आशाओं से परिपूर्ण,
बाधाएँ, चुनौतियाँ पार कर,
उत्साहित, प्रसन्नचित्त, प्रकाशमान सहर्ष,
प्रोत्साहन देता अनूठा, गांभीर्य शब्द संघर्ष,
छिपा गूढ इसमें तात्पर्य,
ड़टे रहो कर्तव्यपथ पर “ संग + हर्ष",
अब दूर कहीं मुसकुराता है,…
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Added by Arpana Sharma on October 4, 2016 at 5:41pm —
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हिट हिटा हिट हिट
पिट पिटा पिट पिट
ये भी एक अज़ब दौर है
क्या हो जाए कब हिट
क्या जाये कब पिट
पब्लिक की च्वॉइस
मीडिया की वॉयस।
जिस नेता की जयंती बरसी
दो दिन उसकी बातें हिट।
जिससे हो अपना भला ,
हो अपना मामला फिट
वही हिट, वही हिट, वही हिट ,
बाकी सब गिटपिट गिटपिट।
ये बड़ी ख़बर , वो ख़बर हिट ,
गाना हिट , पिक्चर हिट ,
विचार हिट , डायलॉग हिट
मेकियावली हिट , चाणक्य हिट ,
ये नेता हिट ,उसका घोर विरोधी भी हिट…
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Added by Dr. Vijai Shanker on October 4, 2016 at 9:15am —
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आजकल देखने मे
कौन बुरा लगता है,
रोता है वो फिर भी,
हंसता हुआ लगता है।
दिल में है दर्द
पलकें हैं भीगी हुयी,
कोई हमसे यूँ ही
रूठा हुआ लगता है।
डूबा हूँ पानी में
प्यासा हूँ बैठा हुआ
समन्दर भी मुझे अब
सूखा हुआ लगता है।
कौन यहाँ बिखरा गया
फूल और पतियों को,
पेड़ हर तरफ यहाँ ,
टूटा हुआ लगता है।
सब कुछ तो है घर की
दीवारों में सजा हुआ
आिशयाँ मेरा फिर भी
बिखरा हुआ लगता है।
मौलिक अप्रकाशित
Added by S.S Dipu on September 30, 2016 at 12:05am —
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आज ना जाने
क्यों सहमी हुईं
है दीवारें
गरम
चाय का प्याला
लिया
ठंडी हवा का
लुत्फ़ लिया
देखा चाँद
की ओर
सब कुछ
स्याह सा लगा
काले बादल
इधर उधर
बिखरने को
मचल रहे थे
तेज़ हवाएँ
बेलगाम
चलने लगी
काँच की
खिड़की भी
छटपटाने
तड़पने लगी
तेज़ी से बिजली
चटकी
चादर में
मैं सिमट गयी
बुझी हुई
आँखों से
फिर देखा
दीवार की
तरफ़
दरारें बे हिसाब
थी…
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Added by S.S Dipu on September 28, 2016 at 9:45pm —
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तुम चुरा
ना लो
मेरे हिस्से की
हँसी
इस कारण
मुस्कुराना छोड़
दिया है
दर्द ना आँखों से
छलक पाएँ
पालकों
से आँखों को
सिया है
मन्नतें माँगी
नही फिर भी
बिन माँगे झोली
भरी देखी
कसाई बना है
वक़्त सभी का
आज़ादी पर
रोक
लगी देखी
बेपरवाह सब
घूम रहे
लगता नहीं
ये घर लौटेंगे
शहर में
घूम रहे भेड़िए
सचाई पर
बेड़ियाँ
लगी देखी
अपनापन पनपता
बाँटे किससे…
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Added by S.S Dipu on September 28, 2016 at 10:05am —
5 Comments
जॉन एफ केनेडी
ने कहा
कि यह मत पूछो
कि देश ने तुम्हारे
लिए क्या किया,
यह पूछो कि
तुमने देश के
लिए क्या किया?
इन शब्दों ने मेरे
जीने का अन्दाज़
ही बदल दिया है
मैं शिक्षक हूँ
क्या मैंने छात्रों
का मनोबल
बढ़ा लिया है
पूछूँ मैं
ख़ुद से अब
क्या
तनख़्वाह लेके
सही किया है ?
मैं बेचता हूँ
दूध पानी मिला
मिला के क्या
गाय का नाम
मैंने ही
मिटा रखा है ?
मैने बनके…
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Added by S.S Dipu on September 26, 2016 at 11:46pm —
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तंत्र को नैये-नैये मंत्र मिल रहे हैं ,
सफलता और विकास के नैये-नैये
शब्दकोष रचे जा रहे हैं ,
शब्द , नैये-नैये अर्थ पा रहें हैं ,
अर्थ , पुरुषार्थ में पुरोधा बन रहे हैं।
पा लें , सब पा लें की होड़ लगी हैं ,
क्या खो रहें हैं , देख नहीं पा रहें हैं।
सत्ता , मद - यामिनी ,
सिंहासन , पद - वाहिनी ,
जब डोलता है तो ,
डोलता हुआ नहीं लगता है ,
झूला झुलाता हुआ लगता है ,
जागो , जागते रहो , कहनेवाला ,
खुद नींद में सोया-सोया लगता है।
आगे…
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Added by Dr. Vijai Shanker on September 25, 2016 at 7:35am —
8 Comments
( नवीन मुद्रा के आगमन पर स्वागत सहित, अचानक प्रस्तुत )
कैसे गायब हो जाते हैं छोटे सिक्के ,
पाई , अधेला , धेला , दाम ,
छेदाम , पैसा , दो पैसा ,
इक्कनी , दुअन्नी , चवन्नी ,
गला कर उन्हें तांबे ,
पीतल में ढाल लेते हैं।
कहते हैं , उनकी खरीदने की
ताकत ख़तम हो जाती है ,
या उनकीं अपनी कीमत बढ़ जाती है ?
हमारी समझ घट जाती है ,
तभी तो वे पुराने सिक्के
चलन में आज मिलते नहीं ,
कहीं मिल जायें तो
सौ, दो सौ , हजार , दस हजार…
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Added by Dr. Vijai Shanker on September 16, 2016 at 11:10pm —
12 Comments
अपनों से ही जुदा
अपनों से ही लुटता
बहुचर्चित एक देश।
एक देश का ग़ुलाम
हथियार पाकर है बदनाम
ख़ुद बेलगाम एक देश।
ख़ुद को ख़ुद से भुलाता
मज़हब की आड़ लेता
कट्टरों का ग़ुलाम एक देश।
आतंक की ले पहचान
आतंक की खुली दुकान
पलता, पालता एक देश।
एक देश का है टुकड़ा
'आधा' खाकर, 'आधे' पर अकड़ा
छोटे से छोटा होता एक देश।
**
[2]
अपनों से ही संवरता
अपनों को ही उलझाता
बहुचर्चित…
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Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 5, 2016 at 11:45pm —
10 Comments
अमीर उम्र भर रोता रहा
हाय ये भी मिल जाता ,
हाय वो भी मिल जाता ,
ये ये मिलने से रह गया ,
वो चाहा बहुत मिला नहीं।
बस एक गरीब ही है ,
जिसे यही पता नहीं ,
उसने क्या खोया ,
उसे क्या मिला नहीं।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Dr. Vijai Shanker on August 28, 2016 at 10:54am —
2 Comments
जोड़-तोड़ खूब कर लेते हो।
जहां तोड़ लेना चाहिए ,
वहीं जोड़ लेते हो ,
समस्या को निपटा नहीं पाते ,
लिपटा लेते हो , गले लगा लेते हो।
उसी का राग अलापते हो ,
गीत गाते हो , छोड़ते नहीं ,
अलबत मौक़ा मिलते ही भुना लेते हो।
जिनको जोड़ लेना चाहिए ,
उन्हें भूले रहते हो।
संतुलन बनाये रखते हो।
कहते हो , राजनीति है ,
कर लेते हो।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Dr. Vijai Shanker on August 22, 2016 at 10:24am —
20 Comments
दो चार कहीं लगते पौधे , |
रोज कटते हैं पेड़ हज़ार | |
वन झाड़ी का होत सफाया , बाग कानन का मिटता नाम | |
कहीं पेंड नज़र नहीं आते , कहाँ जा करे राही विश्राम… |
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Added by Shyam Narain Verma on August 9, 2016 at 2:26pm —
10 Comments
पहले आप
पहले आप
एक तहजीब थी ,
अंग्रेजी में ,
ऑफ्टर यू ,
एक ही बात ,
आपके बाद।
आपका दौलत खाना ,
ख़ाकसार का गरीबखाना ,
आपके करम ,
बन्दे की खिदमत।
हम कुछ भी हों ,
आपके आगे कुछ नहीं।
वक़्त बदल गया।
पर सब कुछ वैसा ही है ,
तहज़ीब के पैमाने वही।
आपके आगे हम
आज भी कुछ नहीं ,
कुछ नहीं करने में
आप हमसे आगे ,
आपके घोटाले बड़े ,
इतने कि धरती धकेल दें ,
आप आगे , हम बहुत पीछे।
कामचोरी में आप…
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Added by Dr. Vijai Shanker on August 7, 2016 at 10:57am —
2 Comments
पिंजड़ा भी ,
एक अजीब बंधन है ,
दाना भी , पानी भी , बस ,
बंद पंछी उड़ नहीं सकता।
हौसलों से कहते हैं कि
क्या कुछ हो नहीं सकता ,
हो सकता है , बस पंछी ,
पिंजड़ा लेकर उड़ नहीं सकता।
कितने आज़ाद हैं हम ,
फिर भी उड़ नहीं पाते ,
मुक्त हो नहीं पाते ,
उन्मुक्त होकर जी नहीं पाते ,
बाहर से आज़ाद हैं , बस ,
कुछ पिंजड़े हैं हमारे अंदर ,
बाँधे हैं , कुछ ढीले , कुछ कस कर।
रूढ़ियाँ कब बन जाती हैं बेड़ियाँ ,
बंधे रह जाते हैं हम , पता…
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Added by Dr. Vijai Shanker on August 2, 2016 at 9:30am —
17 Comments
हर गुनाह की सजा होती है ,
ये तो पता नहीं ,
पर हर गुनाह पर किसी न किसी का
हक़ होता है , ये पता है।
कभी कोई गुनाहगार मजबूर लाचार भी होता है ,
ये तो पता नहीं ,
पर बड़ा गुनाहगार अक्सर बड़ा ताक़तवर होता है ,
ये सबको पता है।
चोरी तो चौसठ कलाओं में से एक है ,
पता है न ,
पर चोर ताक़तवर हो तो
चोर को चोर कहना गुनाह होता है।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Dr. Vijai Shanker on July 25, 2016 at 10:00am —
10 Comments
विशालता - सूक्ष्मता
का अनूठा संगम हैं प्रकृति,
हाथी भी है , चींटी भी है,
सूक्ष्म जीव , जीवाणु ,
कीट , कीटाणु भी हैं
दोनों का भोजन है ,
भूखा कोई नहीं है ,
इंसान को समझो ,
उसे न्यून मत करो ,
इतना न्यून तो
बिलकुल मत करो
कि वह सूक्ष्म हो जाए ,
और तुम्हें दिखाई भी न दे ,
कीटाणु की तरह ,
रोगाणु की तरह ,
रहेगा तब भी वह समाज में,
सोचो , क्या करेगा ?
समाज को ही रोगी करेगा।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Dr. Vijai Shanker on July 15, 2016 at 10:15am —
12 Comments
सदैव सचेत ,जाग्रत ,
रहने वाले प्रबुद्ध हैं हम ,
बस अपने से ही दूर ,
अनन्त अंजान हैं हम।
जागते रहो , नारा है ,
लक्ष्य-आदर्श नहीं ,
दृश्य है , वो दीखता नहीं ,
अदृश्य , लक्ष्य है , और
पहुँच से बहुत दूर दीखता है ,
फिर भी अति प्रसन्न हैं हम ,
सुसुप्त-सुख से ग्रस्त हैं हम ,
जगा दे कोई किसी में दम नहीं।
फिर भी कोई दुःसाहस करे ,
जागते नहीं , उखड़ जाते हैं हम ,
भड़क जाते हैं हम ,
ज्ञान बोध से नहीं ,
अज्ञान के उद्भव से ,…
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Added by Dr. Vijai Shanker on July 2, 2016 at 10:00am —
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