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मुद्रा स्फीति --डॉo विजय शंकर

( नवीन मुद्रा के आगमन पर स्वागत सहित, अचानक प्रस्तुत )

कैसे गायब हो जाते हैं छोटे सिक्के ,
पाई , अधेला , धेला , दाम ,
छेदाम , पैसा , दो पैसा ,
इक्कनी , दुअन्नी , चवन्नी ,
गला कर उन्हें तांबे ,
पीतल में ढाल लेते हैं।
कहते हैं , उनकी खरीदने की
ताकत ख़तम हो जाती है ,
या उनकीं अपनी कीमत बढ़ जाती है ?
हमारी समझ घट जाती है ,
तभी तो वे पुराने सिक्के
चलन में आज मिलते नहीं ,
कहीं मिल जायें तो
सौ, दो सौ , हजार , दस हजार मे
बिक जाते हैं , क्योंकि बताते हैं कि
इसमें एक आदमी का कई कई दिन का
राशन - भोजन आ जाता था।
इसीलिये तो आज वह दस हजार का बिक जाता है।

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Dr. Vijai Shanker on October 13, 2016 at 11:39pm
आदरणीय विजय निकोर जी , आपका बहुत बहुत आभार एवम धन्यवाद , बहुत दिन बाद मुलाक़ात हुयी , स्वस्थ रहें ,प्रसान रहें , सादर।
Comment by vijay nikore on October 13, 2016 at 2:03pm

बहुत ही अनोखा विषय और उस पर सुन्दर रचना। हार्दिक बधाई, विजय शंकर जी।

Comment by Dr. Vijai Shanker on September 22, 2016 at 9:23pm
आभार, आदरणीय समर कबीर साहब, सादर।
Comment by Samar kabeer on September 22, 2016 at 6:14pm
जी,बहुत बहुत शुक्रिया,ऐसे ही स्नेह बनाये रहें ।
Comment by Dr. Vijai Shanker on September 22, 2016 at 12:52pm
आदरणीय समर कबीर साहब , नमस्कार , आपकी टिप्पणी के लिए ह्रदय से आभार , साहित्य में आप जैसे परिपक्कव लोगों की उपस्थिति सदैव अपेक्षित एवम सम्माननीय होती है , दुनियाँ तो सदा से विविधताओं से पूर्ण रही है पर एक समर्पित साहित्यकार की दृष्टि सदैव मानवीय विषयों पर बनी रहती है। यही जागरूकता है और यही साहित्य - साधना है। आपका शैर लाजवाब है , जो बात मेरी कविता में दस - बारह लाइनों में कही गई है वः आपने दस लफ्जों में कह डाली , शायरी की यही
तो खूबी है , आपके शैर के लिए भी आपका आभार। आपसे चर्चाएं आगे भी होती रहेंगीं तो आनंद द्विगुणित होता रहेगा। सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on September 22, 2016 at 12:51pm
आदरणीय शिज्जु शकूर जी , आपकी कविता पर उपस्थिति एवं उसकी विवेचना के लिए ह्रदय से आभार एवं धन्यवाद , सादर।
Comment by Samar kabeer on September 21, 2016 at 10:42pm
आली जनाब डॉ विजय शंकर जी आदाब,आपने बहुत महत्वपूर्ण जानकारियाँ और जनाब अशोक चक्रधर साहिब की रचना साझा की इसके लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ।
मैं जबसे ओबीओ परिवार से जुड़ा हूँ ,आपकी रचनाऐं कविता हो या लघुकथा ध्यान से पढ़ता हूँ और आपकी इस ख़ूबी से बख़ूबी वाक़िफ़ हूँ कि आपकी रचना के विषय हमेशा दूसरों से मुख़्तलिफ़ होते हैं और मेरी नज़र में यही कमाल-ए-फ़न है।
कोई भी विषय पाठक के लिये रूखा फीका हो सकता है ,ये बात आम पाठकों पर तो लागू हो सकती है लेकिन कुछ ख़ास पाठक भी होते हैं जो इन रूखे फीके विषयों का भरपूर आनंद लेते हैं और उसकी सराहना भी करते हैं ,और एक लेखक के लिये वो ख़ास पाठक ही काम के होते हैं,चाहे वो गिनती में कम हों । ओबीओ से प्रकाशित मेरी एक ग़ज़ल का शे'र साझा कर रहा हूँ ,शैर की ख़ासियत से तो एक रचनाकार होने के नाते आप बख़ूबी वाक़िफ़ हैं ही कि ग़ज़ल के शैर में कोई भी विषय खुल कर बयान नहीं होता,दो पंक्तियों में ही बात कहना होती है,अब यह पाठक पर निर्भर करता है कि वो उस विषय तक पहुँचता है कि नहीं :-

"लोग क्या क्या ख़रीद लेते थे
इक ज़माना था एक आने में"

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Comment by शिज्जु "शकूर" on September 21, 2016 at 3:03pm

आ. डॉ विजय शंकर सर आपने एक वांछित मुद्दे को कविता के रूप में प्रस्तुत किया है, अपने शीर्षक को सार्थक करती इस रचना के लिए बहुत बहुत बधाई 

Comment by Dr. Vijai Shanker on September 20, 2016 at 8:21pm
आदरणीय सुरेश कुमार कल्याण जी , आप इस रचना पर उपस्थित हुए , आपने इसे पसंद किया , आपका ह्रदय से आभार एवम धन्यवाद , सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on September 20, 2016 at 8:17pm
आदरणीय समर कबीर साहब , नमस्कार , मैं मूलतः एक शिक्षक हूँ , यह बात मेरे लेखन में प्रकट हो ही जाती है , इसीलिये मेरे विषय अक्सर स्वाद-रहित , फीके-फीके से होते हैं परन्तु जीवन के बहुत नजदीक के होते हैं और मैं उन विषयों पर भी कलम चलाने लगता हूँ जिनके विषय इन मैं स्वयं जानता हूँ कि लोग कदापि आकर्षित नहीं होंगे। बस एक स्वभाविक मजबूरी है। मुद्रा स्फीति एक ऐसा विषय है जिस पर लिखना कठिन नहीं है पर सामान्यतः हमारा उस पर ध्यान जाता ही नहीँ क्योंकि हमने मान लिया है कि मूल्य वृद्धि एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है , जो कमीज मैं आज एक हजार रूपये की खरीद रहा हूँ वही यदि आप मुझे देख कर एक महीने बाद खरीदने जाते हैं तो वह आपको एक हजार रूपये की नहीं ही मिलेगी कम से कम ग्यारह सौ रूपये की मिलेगी और मिलनी भी चाहिए। ऐसी हमारी सोंच बन चुकी है।
पर कहीं और देखें , जैसे मैं पिछले सात वर्षों से प्रायः प्रतिवर्ष अमेरिका जाता आता रहता हूँ , वहां वही कमीज यदि एक निर्धारित अवधि तक नहीं बिकती तो उसकी कीमत घटने लगती है , और कुछ महीने में वही कमीज हजार रूपये की जगह आपको पांच सौ में मिल सकती है।
एक बात और अमेरिका में डॉलर - स्टोर्स होते हैं जहां बहुत सी रोजमर्रा की वस्तुएं मात्र एक डालर की मिलती हैं , मैं पिछले सात वर्षों से देख रहा हूँ कि वे अभी भी एक ही डॉलर की मिल रही हैं। शायद हमारे देश के महान अर्थ शास्त्री इन प्रश्नों से विचलित नहीं होते , उनकीं दृष्टि कहीं और रहती है ,उन्होंने मुद्रा स्फीति को एक नैसर्गिक प्रक्रिया मान रखा है। यह बात और है कि हमारे ही देश में जब मैं सातवीं क्लास में पढ़ता था तो जो समोसा एक आने का मिलता था वह जब मैं इंटर में पढ़ता था तो भी एक ही आने में मिलता था , तब शायद हमारे अर्थ-शास्त्री इतने जागरूक नहीं होते थे। यह बातें किसी भी देश के लिए कितनी घातक है शायद उनकीं दृष्टि उस पर जाती ही नहीं। वैसे यह विषय साहित्य के ही हैं , इन पर ध्यान दें तो बहुत से दुखदायी और चिंतनीय विषय उत्पन्न ही नहीं होंगे।
प्रसंगतः कल ही मैंने ' हिंदी पू ' नामक मंच पर आदरणीय अशोक चक्र धर जी की इसी विषय पर एक कविता देखी , उन्होंने इसी विषय पर एक बिलकुल भिन्न प्रकार से एक कविता प्रस्तुत की है , चलिए आपके लिए उसे अंकित कर रहा हूँ ....
सिक्के की औक़ात

एक बार
बरखुरदार!
एक रुपए के सिक्के,
और पाँच पैसे के सिक्के में,
लड़ाई हो गई,
पर्स के अंदर
हाथापाई हो गई।
जब पाँच का सिक्का
दनदना गया
तो रुपया झनझना गया
पिद्दी न पिद्दी की दुम
अपने आपको
क्या समझते हो तुम!
मुझसे लड़ते हो,
औक़ात देखी है
जो अकड़ते हो!

इतना कहकर मार दिया धक्का,
सुबकते हुए बोला
पाँच का सिक्का-
हमें छोटा समझकर
दबाते हैं,
कुछ भी कह लें
दान-पुन्न के काम तो
हम ही आते हैं।
- अशोक चक्रधर
साथ ही इस रचना पर आगमन , इसे पसंद करने और मुझे इसी पर कुछ और लिखने के लिए प्रेरित करने के लिए ह्रदय आपका आभार और धन्यवाद , सादर।

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