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मिटटी ,बांस और हम

मिटटी ...

नर्म होती है

जब गीली होती है

पक जाती है वह

जब आग पर

रंग ,रूप आकार नहीं बदलती //



बांस ...

जब कच्चा होता है

जिधर चाहो ,मोड़ दो

पक जाने पर

नहीं मुड़ेगा //



आदमी ...

कब पकेगा

मिटटी की तरह

बांस की तरह

शायद कभी नहीं क्योकि

दिल तो बच्चा है जी //…

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Added by baban pandey on December 28, 2010 at 11:00am — 2 Comments

विशेष रचना : षडऋतु-दर्शन --- * संजीव 'सलिल'

विशेष रचना :

                                                                                   

षडऋतु-दर्शन                 

*

संजीव 'सलिल'

*… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on December 27, 2010 at 11:54pm — 4 Comments

पानी के इस्तेमाल से कोडरमा के कई गांवों में दर्जनों लोग हुए विकलांग

झारखंड बिहार की सीमा पर बसे कोडरमा जिले के कुछ गांव ऐसे हैं जहां पानी के इस्तेमाल से बच्चे और बडे विकलांग हो रहे हैं। ये बदनसीब ऐसे कि पानी का घूंट लेते वक्त उनके हाथ-पैर कांपते हैं। इन गांवों में बडे भी खुद कब की लाठी थामे हैं, अब बच्चों को बैसाखियों के सहारे जिंदगी ढोते देख रहे हैं। कोडरमा घाटी में बसे गाव मेघातरी, उससे सटे विष्नीटिकर और करहरिया को विकास का… Continue

Added by sanjeev sameer on December 27, 2010 at 10:08pm — No Comments

महंगाई और दावे पर दावे

देश की सबसे बड़ी समस्या महंगाई ने बीते कुछ बरसों से इस कदर लोगों की फजीहत खड़ी की है, उससे घर का बजट ही बिगड़ गया है। हाल की महंगाई ने तो लोगों के कलेजे, चबड़े पर ला दिया है। जिस तरह देश में विकास का सूचकांक बढ़ने का दावा किया जा रहा है, उस लिहाज से महंगाई कई गुना ज्यादा बढ़ रही है और सरकार है कि दावे पर दावे किए जा रही है। एक बार फिर महंगाई के सुरसा ने मुंह फाड़ा तो जैसे-तैसे सरकार यह कह रही है कि मार्च तक महंगाई पर काबू पा लिया जाएगा, मगर यहां सवाल यही है कि इससे पहले सरकार ने कई बार जो दावे किए थे,… Continue

Added by rajkumar sahu on December 27, 2010 at 3:37pm — No Comments

मैं कौन हूँ ,

मैं कौन हूँ?

ये सोच कर ,

विचार कर ,

परेशान हो गया ,

मेरी सोचने की क्षमता,

बेकार हो गई !



मैं कौन हूँ  ?

मन बोला मैं पंडित ,

मेरी बातो में दम हैं ,

इस धरती पर ,

सबसे बुद्धिशाली ,

मैं सबसे गुणी ,

मगर जो ,

हश्र रावण का हुआ ,

वो सोच मैं बेजार हो गया !



मैं कौन हूँ  ?

मगर मन भटकता रहा ,

अपने बल पे गरूर था ,

डरते हैं लोग सारे ,

अच्छो अच्छो को ,

पस्त कर डाला ,

मगर जो ,

हश्र…

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Added by Rash Bihari Ravi on December 27, 2010 at 3:30pm — 14 Comments

निष्फल

बहुत कुछ सुना पर सीख न पाया

बहुत कुछ सूझा पर लिख न पाया



बहुत कुछ हुआ मेरे पीठ पीछे

मुडके देखा
तो कुछ और ही पाया



नमक के जैसी थी प्रकृति मेरी

पानी में घुला पर मिट न पाया



बन बोछार जब छलका में

चिकने घड़ों पे टिक न पाया



घूमता हूँ छुपाये कितने मोती में

खारा समुन्दर हूँ छुप न पाया



तंग होकर जब खुद को बेचने चला बाज़ार में

निष्फल था…
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Added by Bhasker Agrawal on December 27, 2010 at 8:30am — 9 Comments

मुखौटा सच का ..?

होंठ…
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Added by Lata R.Ojha on December 27, 2010 at 1:00am — 6 Comments

नवगीत : प्रेम हो गया आज नमकीन

प्रेम हो गया आज नमकीन

 …

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 26, 2010 at 11:25pm — 3 Comments

केक्टस

एक कविता आज के दौर के नाम....



पैसा है, उसका नशा है, और शोहरत है

अब कहाँ इतनी फुरसत है

लोगों के आसपास होने का अहसास नहीं होता

अपनों के खोने का डर आसपास नहीं होता





हसरतें, इतनी कि ख़त्म ही नहीं होती!

पाना ये , वो भी कि, सबर ही नहीं होती

स्नेह, प्यार, विश्वास शब्दों में अब गुजर नहीं होती





प्रकृति के नज़ारे भी लगते… Continue

Added by anupama shrivastava[anu shri] on December 26, 2010 at 7:00pm — 7 Comments

कुछ उम्मीदें थीं खुद से तुझे

कुछ उम्मीदें थीं खुद से तुझे

जुटाई थी हिम्मत उसके लिए

कुछ ऐसे तेरे लडखडाये कदम

जैसे लगी ठोकर कोई



वादे थे जो घबरा गए

होंगे वो पूरे अब नहीं

यादें थी जो संजोई तूने

काँटों सी वो चुभने लगीं



बढ़ने थे जो जमकर कदम

राहों में वो दुखने लगे

उभरी थी जो कश्ती बड़ी

भवर में कहीं खो गयी



कोन सी है मंजिल तेरी

वो ही है या वो नहीं

कोन सी है मुश्किल तेरी

कुछ है नहीं कुछ है नहीं



शायद वो कुछ बताता तुझे

आगे वो…
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Added by Bhasker Agrawal on December 26, 2010 at 6:58pm — 2 Comments

ग़ज़ल : अज़ीज़ बेलगामी

ग़ज़ल



अज़ीज़ बेलगामी



ग़म उठाना अब ज़रूरी हो गया

चैन पाना अब ज़रूरी हो गया



आफियत की ज़िन्दगी जीते रहे

चोट खाना अब ज़रूरी हो गया



गूँज उट्ठे जिस से सारी काएनात

वो तराना अब ज़रूरी हो गया



जारहिय्यत  के दबे एहसास का

सर उठाना अब ज़रूरी हो गया



अब करम पर कोई आमादा नहीं

दिल दुखाना अब ज़रूरी हो गया



साज़िशौं, रुस्वायियौं को दफ'अतन…

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Added by Azeez Belgaumi on December 26, 2010 at 2:00pm — 7 Comments

कहां जा रहा हमारा समाज ?

आधुनिकता की चकाचौंध जिस तरह से समाज पर हावी हो रही है, उससे समाज में कई तरह की विकृतियां पैदा हो रही हैं। एक समय समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ राजा राममोहन राय जैसे कई अमर सपूतों ने लंबी जंग लड़ी और समाज में जागरूकता लाकर लोगों को जीवन जीने का सलीका सिखाया। आज की स्थिति में देखें तो समाज में हालात हर स्तर पर बदले हुए नजर आते हैं। भागमभाग भरी जिंदगी में किसी के पास समय नहीं है, मगर यह चिंता की बात है कि इस दौर में हमारी युवा पीढ़ी आखिर कहां जा रही है ? समाज में इस तरह का माहौल बन रहा है,… Continue

Added by rajkumar sahu on December 26, 2010 at 1:25pm — No Comments

सोचना जरूरी है

ऐसे समय में

जब आदमी अपनी पहचान खो रहा है

बाजार हो रहा है हावी

और आदमी बिक रहा है

कैसी बच सकेगी आदमियत

यह सोचना जरूरी है।



टीवी पर दिखती रंग बिरंगी तस्वीरें

हकीकत नहीं है

और न ही पेज 3 पर के चेहरे

आज भी बच्चे

दो जून की रोटी के लिये

चुनते हैं कचरे

और करते हैं बूट पालिष

अरमानों को संजोये

हजारों लडकियां

पहुंच जाती हैं देह मंडी के बाजार में

और यही हकीकत है।



पूरी दुनिया की भी यही तस्वीर है

जब बाजार हो रहा है… Continue

Added by sanjeev sameer on December 26, 2010 at 12:29pm — 8 Comments

कुछ दिनो से

कुछ दिनो से

ये शहर लगता उदास है

उपर से शान्त पर

अन्दर से बना आग है.

कुछ दिनो से

सान्झ होते ही

खिडकिया और दरवाजे

हो जाते है बन्द

और लोग अपने ही घरो मे

होकर रह जाते है कैद.

कुछ दिनो से

लगता ही नही कि

रहता है यहा कोई आदमी… Continue

Added by sanjeev sameer on December 26, 2010 at 12:26pm — 1 Comment

हम इंतजार करते हैं

कभी कोई अनजाना
अपना हो जाता है.
कभी किसी से
प्यार हो जाता है.
ये जरूरी नहीं
कि जो खुशी दे
उसी से प्यार हो.
दिल तोडने वाले से भी
प्यार हो जाता है.
जिन्दगी हर कदम पर
इम्तिहान लेती है,
तन्हाई हर मोड पर
धोखा देती है.
फिर भी हम
जिन्दगी से प्यार करते हैं
क्यूंकि हम किसी का
इंतजार करते हैं.
कुछ दोस्तों का
हां दोस्तों का
इंतजार करते हैं.

Added by sanjeev sameer on December 26, 2010 at 12:22pm — 1 Comment

लघुकथा: एकलव्य -- संजीव वर्मा 'सलिल'

लघुकथा



एकलव्य



संजीव वर्मा 'सलिल'



*

- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'



- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'



- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'



-हाँ बेटा.'



- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा - 'काश वह आज भी होता.'

*****



रचनाकार परिचय:-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' नें नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा. बी.ई.., एम. आई.ई.,… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on December 26, 2010 at 12:06pm — 2 Comments

मैने सॅंटा को देखा है ..

मानो…

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Added by Lata R.Ojha on December 26, 2010 at 1:30am — 4 Comments

सुबह फिर आ गयी जागो ..

सुबह फिर…

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Added by Lata R.Ojha on December 26, 2010 at 1:00am — 4 Comments

एकाकी...

एकाकी, एकाकी

जीवन है एकाकी...

मैं भी हूँ एकाकी,

तू भी है एकाकी,

जीवन पथ पर चलना है

हम सबको एकाकी I

 

ना कोई तेरा है,

ना है किसी का तू,…

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Added by Veerendra Jain on December 26, 2010 at 12:00am — 13 Comments

GHAZAL - 22

                       ग़ज़ल





फ़र्ज़  के  पैगाम  का  बस,  उम्र  भर  ये  स्वर  सुना  है |

युग विजेता बन  मनुज  तू ,  जिसने ये अम्बर बुना है ||



वो  कि -   जो  बैठे  हुए  थे   खुद   किनारों  पर   कहीं,

कह  रहे  थे -   खास  गहरा  नहीं  ये  सागर,  सुना  है ||



कल  न  जाने  बात  क्या  थी ?  आसमां  नीचा  लगा,

आज  जब  उँचाई  उसकी  नाप  ली  तो  सिर  धुना  है ||



लौट  कर  आया  नहीं,  उस  ख़त  के  बदले  कोई…
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Added by Abhay Kant Jha Deepraaj on December 25, 2010 at 7:46pm — 1 Comment

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