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दर्द चेहरे पे नहीं भूल से लाया करिए "ग़ज़ल"

===========ग़ज़ल===========

 

दर्द चेहरे पे नहीं भूल से लाया करिए

लुत्फ़ लेता है ज़माना ये छुपाया करिए

 

सच है हर बात तो फिर सामने आया करिए

आइने से यूँ निगाहें न चुराया करिए

 

हर कोई अपना नज़र तुमको भी आएगा  

चंद लम्हों को सही “मैं” तो भुलाया करिए

 

चश्म में इश्क अगर देखना हो सच्चा तो

कोई मजलूम कलेजे से लगाया करिए

 

हो बड़े गर तो गरीबों को सहारा देकर

इस अमीरी को कभी आप भुनाया…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on March 31, 2013 at 3:30pm — 13 Comments

सखी! साजन नहि आए रात।

सखी! साजन नहि आए रात।

नयन से नीर,
झर झर टपकत,
सावन झरै बरसात।


सुन्दर-सुन्दर,
सेज सजाई,
करवट करे उफनात।।
सखी! साजन नहि आए रात।

द्वार खड़ी पथ,
उड़त धूल अस,
बड़ा तूफान गहरात।


अब फिर डूबा,
सूरज पछुवा,
फिर-फिर डसे कस रात।।
सखी! साजन नहि आए रात।
के0पी0सत्यम/मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 31, 2013 at 2:00pm — 10 Comments

"ख्याली पुलाव"

चारपाई पर लेटे लेटे ,

ख्याली पुलाव पका रहा था !

सुन्दर अभिनेत्री के साथ ,

झील में नहा रहा था !!

इशारा किया पास आओ ,

इतने में शर्मा गयी!

उसकी यह चंचल अदा

मुझे और भी भा गयी…

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Added by ram shiromani pathak on March 31, 2013 at 12:37pm — 17 Comments


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भावना अर्पण करूँ....नवगीत// डॉ० प्राची

प्रीत शब्दातीत को शुचि भावना अर्पण करूँ...

 

गूँज लें सारी फिजाएँ

युगल मन मल्हार गाएँ

चंद्रिकामय बन चकोरी

प्रेम उद्घोषण करूँ...

 

प्रीत शब्दातीत को शुचि भावना अर्पण करूँ...

 

मन-स्पंदन कर दूँ शब्दित

तोड़ कर हर बंध शापित

नेह पूरित निर्झरित उर

गान से तर्पण करूँ...

 

प्रीत शब्दातीत को…

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Added by Dr.Prachi Singh on March 31, 2013 at 12:00pm — 28 Comments

ग़ज़ल : सोन मछली आपको रोहू नज़र आने लगे

बहर : २१२२ २१२२ २१२२ २१२

----------------------------

जिस घड़ी बाजू मेरे चप्पू नज़र आने लगे

झील सागर ताल सब चुल्लू नज़र आने लगे

 

झुक गये हम क्या जरा सा जिंदगी के बोझ से

लाट साहब को निरा टट्टू नज़र आने…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 31, 2013 at 11:32am — 18 Comments

लीलामयी श्रीकृष्ण-लक्ष्मण लडीवाला

हे प्रातः स्मरणीय श्री कृष्ण,

तेरा जीवन भी है जैसे-

एक पहेली |

तेरे कृत्य को-

तेरे दृश्य को -

तेरे सन्देश को,…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on March 31, 2013 at 11:20am — 7 Comments

ग़ज़ल : झपकती पलक और लगती दुआ है

वज्न : १२२ , १२२ , १२२ , १२२ 

बहर : मुतकारिब मुसम्मन सालिम

झपकती पलक और लगती दुआ है,

अगर मांगने में तू सच्चा हुआ है,

जखम हो रहे दिन ब दिन और गहरे,…

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Added by अरुन 'अनन्त' on March 31, 2013 at 11:16am — 5 Comments

पत्थर भी एकदिन पिघल जाते हैं ...

( आपकी सेवा में मेरी ताज़ी रचना )

---------------------------------------

वक्त  आने  पे जो न संभल पाते हैं |

 फिर  शहर खंडहर में बदल जाते हैं ||…

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Added by श्रीराम on March 31, 2013 at 8:30am — 2 Comments

क्या आप मुझसे कहकर जाती हैं ?



सरला का छोटा सा सुखी परिवार था. वह बहुत ही अनुशासप्रिय थी. उसके दो बच्चे थे. एक बेटा एक बेटी. बेटा पाँच साल का था और बेटी तीन की. दोनों को अपने काबू में रखती थी सरला.

जब भी कहीं बाहर जाती बच्चों को घर के अंदर रहने की हिदायत देकर बाहर से मुख्य द्वार में ताला लगा देती. बच्चे जब तक बोलने लायक न थे सबकुछ ठीक चलता रहा. एक दिन सरला कहीं बाहर से आयी तो देखा बेटा घर में नहीं है. वह सारा घर छान मारी, आस पास देखा. मगर

बेटा कहीं भी नहीं मिला. वह परेशान होकर अपने पति को जब फ़ोन करना चाही…

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Added by coontee mukerji on March 31, 2013 at 2:00am — 9 Comments


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ना उनके हो सके हम वो मेरे हो न पाये(गज़ल)

जिस ख्वाब की बदौलत ताउम्र सो न पाये

ना उनके हो सके हम वो मेरे हो न पाये

 

बादल ने पलकें भींची मौसम के आंसू छलके

पर सुर्ख दग्ध धरती के दाग धो न पाये

 

पैग़ाम दे गया वो सरहद पे मरते- मरते

कुर्बानियो पे मेरी आँखें भिगो न पाये

 

चाहा भले सभी ने बरबाद मुझको करना

सरसब्ज़  हसरतों की कश्ती डुबो न पाये

 

कुदरत को जालिमो ने इस तरह से सताया

ना हँस  सके परिन्दे अब्रपार रो न पाये

 

 

मायूस तू न…

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Added by rajesh kumari on March 31, 2013 at 12:00am — 18 Comments

दो भाई! -भाग 5 (अंतिम)

भाग -5

गतांक से आगे)

भुवन की लड़की पारो (पार्वती) शादी के लायक हो चली थी. एक अच्छे घर में अच्छा लड़का देख उसकी शादी भी कर दी गयी. शादी में भुवन और गौरी ने दिल खोलकर खर्चा किया, जिसकी चर्चा आज भी होती है. बराती वालों को गाँव के हिशाब से जो आव-भगत की गयी, वैसा गाँव में, जल्द लोग नहीं करते हैं.

******

चंदर का बेटा प्रदीप शहर में रहकर इन्जिनियरिंग की पढाई कर रहा था.. दिन आराम से गुजर रहे थे. पर विधि की विडंबना कहें या मनुष्य का इर्ष्या भाव, जो किसी को सुखी देखकर खुश नहीं होता…

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Added by JAWAHAR LAL SINGH on March 30, 2013 at 8:53pm — 2 Comments

प्राण-पल

       

                      प्राण-पल

 

पेड़ से छूटे पत्ते-सा समय की आँधी में उड़ा

मैं हल्के-से तुम्हारे सामने था आ गिरा,

तुमने मुझे उठाया, देखा, परखा, मुझको सोचा,

जाने क्यूँ मुझको लगा

कि वह पल मेरी बाकी ज़िन्दगी से अलग

मेरा ज़्यादा अपना था, अधिक प्रिय…

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Added by vijay nikore on March 30, 2013 at 3:30pm — 20 Comments

प्रेमिकाएं और डाक टिकट

अपनी पुरानी  डायरी में से आपके लिए कुछ हाज़िर कर रहा हूँ ! आशा है आपको पसंद आएगा !



ये प्रेमिकाएं बड़ी विकट  होती हैं

बिल्कुल  डाक टिकट होती हैं

क्योंकि जब ये सन्निकट होती हैं

तो आदमी की नीयत में थोडा सा इजाफा हो जाता है !

मगर जब ये चिपक जाती हैं तो

आदमी बिलकुल लिफाफा हो जाता है !!



सम्बन्धों के पानी से

या भावनाओं की गोंद से चिपकी हुई

जब ये साथ चल पड़ती हैं तो

अपने आप में हिस्ट्री बन जाती हैं !

जिंदगी के डाक खाने में उस लिफ़ाफ़े की

रजिस्ट्री…

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Added by Yogi Saraswat on March 30, 2013 at 10:44am — 16 Comments

एक फुटपाथी कवि का दर्द

कल मैंने अपनी अप्रकाशित

कविताओं का एक बण्डल

नुक्कड़ के कोने पर बैठने वाले

छोले बेचने वाले को सौंप दिया

उसने इसे मुँह बंद करके हँसते हुए…

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Added by RAJEEV KUMAR JHA on March 30, 2013 at 10:31am — 6 Comments

दॊ सवैया (मत्तगयंद) हॊली संदर्भ मॆं

दॊ सवैया (मत्तगयंद) हॊली संदर्भ मॆं

========================

1)

रंग बिरंग गुलाल लियॆ सखि, ताकत झाँकत गैल हमारी !!

संग दबंग लफंग लियॆ कछु, आइ गयॊ अलि छैल-बिहारी !!

मॊहन माधव मारि दई तकि, जॊबन बीच  भरी पिचकारी !!

भूल गई सुधि लाजनि तॆ सखि,भीगि गई रँग कॆशर सारी !!

2)

अंग अनंग उमंग  उठी सखि, भंग मतंग करैं किलकारी !!

हूक उठी…

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Added by कवि - राज बुन्दॆली on March 30, 2013 at 8:30am — 11 Comments

महाराष्ट्र का भीषण सूखा

पानी को ललात कहीं, दिखी भीड़ बिललात।

लम्बी सी कतार लगी, पात्र रीते घूरते।।

सूख गए कूप सारे, सूने पड़े नल कूप।

सूखी नदियों के घाट, मन देख खीझते।।

जल की…

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Added by Satyanarayan Singh on March 30, 2013 at 12:30am — 10 Comments

क्या खूब उसने मुझको , पर्दा हटा के मारा

क्या खूब उसने मुझको , पर्दा हटा के मारा 

उम्मीद के अंचल मैं , उसने सुला के मारा 

आयेगे कह गए वो ,मेरा इंतज़ार करना 

उम्मीद के दामन मैं, ऐसे फुला के मार 

बेमौत मर गया वह, ये दुनिया कह रही थी 

इन्सनियत में उसने , सर को कटा के मारा 

मेरा वजूद उसका हमशक्ल बन गया था 

यादों मैं उसने मुझको , ऐसा सता के…

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Added by Dinesh Kumar khurshid on March 29, 2013 at 9:22pm — No Comments

मांगना

किसी से

कुछ भी माँगना

मुझे लगता है

बहुत बुरा...



कुछ भी मांगने से पहले

करना पड़ता है अभ्यास

कैसे हुआ जाएगा प्रस्तुत

देने वाले के सामने

समय कौन सा उचित हो

जब दाता का मूड ठीक हो

किस अंदाज़ में माँगा जाए

भाषा कैसी हो

कि पिघल जाए दाता...



मांगने का अर्थ है

कि गिरवी रख दिया जाए

अपना समूचा अस्तित्व

साथ ही मन में

रहा आये संशय

कि मांगने पर भी

कुछ न मिले तब....?



बड़ी शर्मिंदगी भर देता… Continue

Added by anwar suhail on March 29, 2013 at 8:59pm — 13 Comments

लम्बे दिन

याद है ....

पहले की दिन कितने

बड़े होते थे

अम्मा तीन बार जगाती थी..

तब कहीं ७(सात) बजा करते थे..

नाश्ता करके ..

उछलते हुए स्कूल जाना

रास्ते में ठेले से केले खींचकर खान

आधी छुट्टी में स्कूल के बाहर

खड़े ठेले से चाट खाना ...

छुट्टी होते ही दोड़ते हुए

घर की तरफ भागना ...

कितना मज़ा था ...

उन दिनों का ..

अम्मा का दौड़ा .. दौड़ा कर खाना खिलाना ..

और समय होता था बस दोपहर का २(दो)

वाकई पहले के दिन कितने

बड़े होते थे… Continue

Added by Amod Kumar Srivastava on March 29, 2013 at 5:03pm — 6 Comments

अब किसी रहनुमा की जरुरत नहीं

इस रहम इस वफ़ा की जरुरत नहीं
अब किसी रहनुमा की जरुरत नहीं

खुद मिलें ना मिलें अब मुझे रास्ते
मुझको तेरी दुआ की जरुरत नहीं

दो कदम चल के जाने कहाँ खो गया
दिल को उस गुमशुदा की जरुरत नहीं

कोई उसको भी जाके बता दे जरा
मुझको उस बेवफा की जरुरत नहीं

मेरे दामन में अब दाग ही दाग हैं
अब किसी बेख़ता की जरुरत नहीं

-पुष्यमित्र

Added by Pushyamitra Upadhyay on March 28, 2013 at 8:49pm — 4 Comments

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