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KALPANA BHATT ('रौनक़')'s Blog (122)

आभासी ( कविता)

आभासी इस दुनिया में क्या 

आभास भी आभासी होते हैं ?

शक्ल नहीं होती है सामने 

इंसान भी आभासी होते हैं ?

समय समय पर बनते बिगड़ते 

रिश्ते भी आभासी होते हैं ?

इंसान में इंसानियत नहीं तो  

आभासी इंसान भी होते हैं ?

बदलते युग का आगाज़ है  

असली और नकली भी होते हैं ? 

साहित्य कोष में भी 

कहीं आभासी शब्द होते हैं  ?

जाने कितने ऐसे सवाल है मन…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 16, 2017 at 4:00pm — 3 Comments

रक्त संचार ( लघुकथा)

बुधिया को जब पता चला कि घनश्याम बाबू का एक्सीडेंट हो गया है और उनको खून कि सख्त जरुरत है , वह व्याकुल हो गया | घनश्याम बाबू से वैसे तो उसने कभी भी प्यार के दो बोल नहीं सुने थे , पर उनकी शक्शियत ने बुधिया को हमेशा आकर्षित किया था , उनके लिए उसके मन में आदर सत्कार था , गाँव के मुखिया घनश्याम बाबू ,एक कट्टर ब्राह्मण थे , इस ज़माने में भी वे जात पात को मानते थे , उनके घर वाले उनको बहुत समझाते ," समय बदल गया है , अपनी सोच बदलें |" इस पर वे अपने सर पर चुटिया को दिखाकर कहते ," समय बदल गया है तो क्या… Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 13, 2017 at 9:29am — 7 Comments

बया का घोसला (कहानी)

जमुना  अपने खिड़की से बाहर झांक रही थी , सामने एक सूखे हुए पेड़ पर एक बया आई , कुछ देर डाल पर बैठकर इधर उधर देखने लगी , और कुछ ही देर में फुर्र्र्रर्र्र करके उड़ गयी | दो तीन दिन यही क्रम चलता रहा |फिर  उसने देखा - एक एक करके अपनी नन्ही सी चोंच में कहीं से तिनका लाती और धीरे धीरे अपने लिए एक घोंसला…
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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 12, 2017 at 11:30am — 6 Comments

विजेता (लघुकथा)

विमल और सौरभ कॉलेज के समय से ही प्रतिद्वंधि थे । हर स्पर्धा में आगे पीछे रहते थे । कभी विमल प्रथम स्थान प्राप्त करता तो कभी सौरभ । इनकी दोस्ती एक मिसाल थी , लोगों ने बहुत चाहा की दोनों में फूट पड़ जाये , पर यह सम्भव न हो पाया ।

कॉलेज के बाद भी दोनों एक साथ दिखायी दे जाते थे , यहाँ तक की दोनों की नौकरियां भी एक साथ एक ही कंपनी में लगी । दोनों बेहद ख़ुश थे , अब भी दोनों में प्रतिस्पर्धा होती रहती थी , दोनों का ही प्रमोशन ड्यू था , अटकले थी कि विमल को प्रमोशन मिलने की संभावनाएं ज्यादा है… Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 12, 2017 at 10:34am — 9 Comments

क्यों लिखूं कोई और कहानी (कविता)

क्यों लिखूं मैं कोई कहानी

जो देती जन्म एक और को



देखती हूँ जब अनगिनीत हैं

आस पास फिर एक और क्यों



पनप रहे है साँप बहुत

विषैले हैं आस पास कई



देखती हूँ अजगर कहीं

जो निगल रहे है रिश्तों को



कहीं दिख रही है मीरा

जो पी रही ज़हर हैं



है कहीं पितामाह भीष्म

बाण शैया पर लेटे हुए



रो रहे हैं खुश्क आँखों से

लोग कई ऐसे सड़कों पर



हो रहा दहन हर रिश्ते का

मोल लग रहा हैं बाज़ारों… Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 9, 2017 at 12:28pm — 6 Comments

क्या तुम सुन रहे हो ? ( कविता)

फिर आ गयी है रात 

पूनम के बाद की 

खिला हुआ चाँद 

कह रहा है कुछ 

क्या तुम सुन रहे हो ? 

तारों से कर रहें हैं  बातें 

तन्हा बीत जाती हैं रातें 

देखता है  यह चाँद यूँही 

हँसता होगा यह भी देख मुझको 

क्या तुम सुन रहे हो ?

साथ चलने को कहा था 

थामकर हाथ चल रहे थे 

फिर क्या हुआ यकायक 

कैसे गरज गए यह बादल 

क्या तुम सुन रहे हो 

चमक रही है बिजली 

चाँद…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 8, 2017 at 10:00pm — 13 Comments

हुई भोर ( कविता)

हो रहा कलरव श्यामा का  

उठो देखो बाहर 

सूर्य उठा रहा चादर 

हो रही है भोर 

नारंगी नभ से खिलता 

बादलों को चीरता हुआ 

कह रहा है हमसे 

हो रही है भोर 

पत्तों पर ओस शर्माती 

देख सूर्य की किरणे 

खुद को समेटती कहते हुए 

हो रही है भोर 

मिट्टी की सौंधी सी महक 

कलियों का खिलना 

धुप देख मुस्कुराना कहता है 

हो रही है भोर 

उठो छोडो बिस्तर अब…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 8, 2017 at 9:30pm — 6 Comments

वर्षा ( सार छंद)

छन्न पकैया छन्न पकैया,काले बादल छाये
सूखी प्यासी धरती की अब,सावन प्यास बुझाये

छन्न पकैया छन्न पकैया,इंद्रधनुष है आया
जल्दी होगी बारिश देखो,ख़ास ख़बर यह लाया

छन्न पकैया छन्न पकैया,छाता भी उड़ जाये
तेज़ हवा के कारण भाई,हमसे सँभल न पाये

छन्न पकैया छन्न पकैया,छम छम बरसे पानी
हरे रंग में धरती देखो,लगती बहुत सुहानी ।।
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on July 31, 2017 at 11:30pm — 12 Comments

सवाल (कविता)

पूछ रही सवाल धरा है
सुनलो ज़रा उसकी पुकार

मथ रहे हो जो लगातार
कितना और करोगे व्यापार

खनिज मेरा तुम छिनते हो
फिर कहते हो खुद को महान

मेरी चीज़ो से ही जानो
बनते हो तुम धनवान

मनुष्य हो तुम पशु नहीं हो
पशुता फिर भी है बिराजमान

मथ रहे हो जाने कब से
अब मथो कुछ खुद को भी

शायद विष पशुता का निकले
और दिख जाये तुममें इंसान ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on July 28, 2017 at 9:22am — 8 Comments

सोमेश्वर मंदिर ( संस्मरण)

सन १९८२ , बी वाय के कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स, शरणपुर रोड, नाशिक , यह उनदिनों की बात है जब मैं इस कॉलेज में पढ़ती थी |

हमारी कॉलेज के पैरेलल दो सड़के जाती थी, एक त्रम्बकेश्वर रोड, और दूसरी गंगापुर रोड , और इन दोनों के बीच पड़ता है हमारा कॉलेज रोड|

हमारे कॉलेज से एक रास्ता कट जाता है जो गंगापुर रोड की तरफ जाता है , कॉलेज से करीब ४.८ किलोमीटर की दुरी पर है यह सोमेश्वर मंदिर | महादेव जी का यह एक प्राचीन मंदिर है , गोदावरी नदी के तट पर बसा यह मंदिर अपनी सुंदरता लिए हुए है | उनदिनों…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on July 22, 2017 at 7:17pm — 4 Comments

पक्का घड़ा ( लघुकथा )

गाँव वालों के बीच इन दिनों एक ही चर्चा चल रही थी और वो थी सुखिया के  बेटे का आतंकवादी बन जाना  | सुखिया एक सीधा सादा कुम्हार था पर उसके हाथ के बने घड़े सुन्दर और पक्के होते थे | आस पास के गाँव वाले भी उसके पास घड़े खरीदने आते थे |

लोगों को जब उनके बेटे के बारे में पता चला तो वे सब सकते में आ गए ।



किसीने कहा , " घोर कलजुग है भैया , किसीका भरोसा नहीं । "



कोई बोला ," इसमें तो मुझे उस सुखिया कुम्हार की ही गलती दिखे है , माटी के घड़े तो बना दिए पर खुद…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on July 22, 2017 at 5:47pm — 7 Comments

सावन ( हाइकू)

आया सावन 

बोले मयूरा सुनो 

उसकी बोली |

२ 

गरज गए

बादल सावन के 

नाचो औ  गाओ |

३ 

गीत कोई तो 

सुना दो सावन के 

मनवा डोले  |

४ 

मधुर गीत 

गाती जब  सखियाँ

पिया पुकारें |

५ 

हरित धरा 

कहती कुछ कुछ 

सुनो तो सही |

चमके जब 

बिजली डर लागे 

ढूँढे पिया को…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on July 18, 2017 at 10:30pm — 14 Comments

लो आ गया सावन ( कविता)

लो आ गया फिर से सावन 

संग लाया यादें मन भावन 

नदी का किनारा अमरुद का पेड़,

पत्थर उठाकर तुम्हारा करना खेल 

पानी उछालना , फिर हंस देना 

अमरुद तोड़ खुद ही खा लेना 

थी अठखेलियाँ वो जो तुम्हारी 

बस गयी तब से साँसों में हमारी

उछलते छीटों  से खुद को भी भिगौना 

गीले होकर रूठ कर बैठ जाना 

कीचड़ लगाकर फिर भाग जाना 

पेड़ की आड़ से फिर मुस्कुराना 

शैतान सी हंसी , मस्ती की…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on July 16, 2017 at 7:00pm — 10 Comments

रिश्ता (कविता)

प्यार चाहे कोई रिश्ता
कोई चाहे दिखावा

कहीं होता व्यापार रिश्तों का
कहीं ढ़ोल है पीटे जाते

कभी निकल जाता है जीवन
ताना बाना बुनने में

एक शब्द है पर
अर्थ है कितने


रिश्तों की तरह
अद्भुत , अटल सत्य की तरह

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on July 2, 2017 at 11:00pm — 6 Comments

मूक दर्शक (लघुकथा)

" बहुत अच्छा करती हो जो अब गोष्ठियों में आने लगी हो , अच्छा लगा आपको यहाँ देखकर । " एक वरिष्ठ साहित्यकार ने एक महिला से कहा ।

" जी नमस्ते सर , नहीं ऐसा कुछ नहीं है , समय अनुसार आ जाती हूँ , विविध रचनाकारों को सुनने का अवसर मिल जाता है । " उस महिला ने उत्तर दिया ।

" ओह तो श्रोता बनकर आती हो ? "

" जी , वैसे सुना है आज कल श्रोता नहीं मिलते ? जो भी आते है उन सभी को मंच की लालसा होती है । "

" बिलकुल सही कह रहीं हैं आप", अट्हास लेते हुए उन्होंने अपने साथी की तरफ देखते हुए कहा , एक…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on June 24, 2017 at 2:30pm — 11 Comments

ख़ामोशी (हाइकू)

1

कैसी ख़ामोशी

हर तरफ़ देखो

रात खामोश



2

यह जो तुम

हो गये हो ख़ामोश

बदली छायी ।



3

बदल गए

सोचा न ऐसा  कभी

ख़ामोशी बोली ।



4

दूर हो गए

कदम ख़ामोशी के

चलते चले ।



5

जब टूटेगी

ख़ामोशी बादलों की

वर्षा ही होगी ।



6

सुनायी देती

ख़ामोशी की ज़ुबान

आँखों में देख ।



7

लम्बी ख़ामोशी

काँटो सी है चुभति

समझे कोई ।



8

रहने लगे…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on June 12, 2017 at 11:00pm — 2 Comments

हाइकू

हाइकू



1

पैसा बोलता

सर चढ़कर है

घमण्डी होता ।



2

पैसा जरुरी

इन्कार तो नहीं है

पर कितना



3

खुशियाँ वहीँ

पहाड़ों पे मिलती

पैसे वालो को



4

सुकून ख़ोजे

क़ैद होकर जब

हंसता पैसा



5

बोले है पैसा

न चाहते हुए भी

अमीर वाणी



6

तौला प्यार को

पैसों की जुबान से

न चला पता ।



7

तलवार सी

धार पैसो की होती

वार करती ।



8

बदले… Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on June 11, 2017 at 10:55pm — 8 Comments

बोलती है चुप्पी भी ( कविता)

बोलती है चुप्पी भी
अपने तरीके से करती है बाते

इधर उधर देखती है
कभी मन्द मुस्कुरा देती है

कभी आँखों से करती है बयान
कभी चहरे पर भाव दिखाती है

बोलती है चुप्पी भी
ख़ामोशी से ही सही

पर कभी कभी दे जाती है
बड़े घाव ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on June 9, 2017 at 12:53pm — 4 Comments

मेरे भीतर की नदी ( कविता)

कल कल बहती है नदी

मेरे भीतर भी कहीं



सूर्य की तपिश में

गर्म होती है ऊपरी सतह



चाँदनी रातों में चमक जाती है

श्वेत तारों को आग़ोश में लिए हुए



सावन में हरित होती मिट्टी

सिमट जाती हैं मुझमें कभी



फिसलती रेत कभी जम जाती है

पर बहता है जल प्रवाह



निरंतर कभी ऊचें पर्वतों से

कभी निचली सतह पर अपनी गति से



ज़मीन पर से देखती है आसमां को

अपने में बहुत कुछ समेटे हुए



छोटे कंकड़ , बड़ी चट्टानें

छोटे… Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on June 3, 2017 at 8:56am — 8 Comments

बिन मौसम बरसात ( कविता)

बिन मौसम बरसात कहीं 

साथ  होती है यादें 

रिम झिम रिम झिम बरसे पानी 

साथ होती हैं बातें 

उस नदी की अल्हड लहरें 

साथ होती है रातें 

आसमान पर चाँद सितारे 

बादल गीत हैं गातें

कल कल करता बहता पानी 

कागज़ की नाव बहाते 

चल मुसाफिर चलता चल तू 

साथ नहीं कोई आते 

मौलिक एवं…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on May 30, 2017 at 10:34pm — 4 Comments

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