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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-61 (विषय: प्रकृति)

आदरणीय साथियो,
सादर नमन।
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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-61 में आप सभी का हार्दिक स्वागत है. प्रस्तुत है:
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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-61
विषय: प्रकृति
अवधि : 29-04-2020 से 30-04-2020
.
अति आवश्यक सूचना :-
1. सदस्यगण आयोजन अवधि के दौरान अपनी एक लघुकथा पोस्ट कर सकते हैं।
2. रचनाकारों से निवेदन है कि अपनी रचना/ टिप्पणियाँ केवल देवनागरी फ़ॉन्ट में टाइप कर, लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड/नॉन इटेलिक टेक्स्ट में ही पोस्ट करें।
3. टिप्पणियाँ केवल "रनिंग टेक्स्ट" में ही लिखें, १०-१५ शब्द की टिप्पणी को ३-४ पंक्तियों में विभक्त न करें। ऐसा करने से आयोजन के पन्नों की संख्या अनावश्यक रूप में बढ़ जाती है तथा "पेज जम्पिंग" की समस्या आ जाती है।
4. एक-दो शब्द की चलताऊ टिप्पणी देने से गुरेज़ करें। ऐसी हल्की टिप्पणी मंच और रचनाकार का अपमान मानी जाती है।आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाए रखना उचित है, किन्तु बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पाएँ इसके प्रति टिप्पणीकारों से सकारात्मकता तथा संवेदनशीलता आपेक्षित है। गत कई आयोजनों में देखा गया कि कई साथी अपनी रचना पोस्ट करने के बाद ग़ायब हो जाते हैं, या केवल अपनी रचना के आसपास ही मँडराते रहते हैंI कुछेक साथी दूसरों की रचना पर टिप्पणी करना तो दूर वे अपनी रचना पर आई टिप्पणियों तक की पावती देने तक से गुरेज़ करते हैंI ऐसा रवैया क़तई ठीक नहींI यह रचनाकार के साथ-साथ टिप्पणीकर्ता का भी अपमान हैI
5. नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति तथा ग़लत थ्रेड में पोस्ट हुई रचना/टिप्पणी को बिना कोई कारण बताए हटाया जा सकता है। यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिसपर कोई बहस नहीं की जाएगी.
6. रचना पोस्ट करते समय कोई भूमिका, अपना नाम, पता, फ़ोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल/स्माइली आदि लिखने /लगाने की आवश्यकता नहीं है।
7. प्रविष्टि के अंत में मंच के नियमानुसार "मौलिक व अप्रकाशित" अवश्य लिखें।
8. आयोजन से दौरान रचना में संशोधन हेतु कोई अनुरोध स्वीकार्य न होगा। रचनाओं का संकलन आने के बाद ही संशोधन हेतु अनुरोध करें।
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मंच संचालक
योगराज प्रभाकर
(प्रधान संपादक)
ओपनबुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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Replies to This Discussion

हार्दिक आभार आदरणीय शेख उस्मानी जी।

आदरणीय तेजवीरसिंहजी आपकी हर लघुकथा बहुत ही बेहतरीन होती है । आप अपनी हर एक कथा में अंत बहुत बेहतर बनाते हैं। जिससे उस लघुकथा में प्रभाव उत्पन्न हो जाता है। वहीं इस लघुकथा में देखने को मिलता है । अति हर चीज की बुरी होती है। हार्दिक बधाई इस बेहतरीन लघुकथा के लिए।

हार्दिक आभार आदरणीय ओम प्रकाश जी।

बिटिया सब संभव है लेकिन अति हर चीज की बुरी होती है ..।पर्यावरण के लिए बेहतरीन संदेश वहन करती हुई बहुत बढ़िया लघुकथा आदरणीय..।

हार्दिक आभार आदरणीय कनक जी।

एक संदेशप्रद लघुकथा हेतु आपको ढेर सारी बधाइयां आदरणीय तेजवीर जी।

हार्दिक आभार आदरणीय मनन कुमार जी।

पठनीय कथा,असल में यह लघुकथा नहीं है ,सत्य कथा है. सुंदर रचना के लिए ढेर सारी शुभकामनाएं.

आदाब। सर, मेरी दृष्टि में यह एक बेहतरीन लघुकथा ही नहीं, यह बेहतरीन बालमन की लघुकथा भी है। 

आदरणीय तेजवीर जी सादर नमन, सामयिक हालात में भले ही मानव जाति एक डर के साये में दिन काट रही है, लेकिन इन दिनों के लॉक डाउन ने पर्यावरणऔर प्रकृति के अनेकों वर्ष के दोहन की प्रतिपूर्ति की है। एक साकारात्मक सन्देश देती हुई उत्तम प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई।

आखिर प्रकृति ने अपना डंडा चला कर सकारात्मक परिणाम दिए,बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकार कीजिएगा आदरणीय सरजी! 

फ़र्क की प्रकृति

राम निवास आज भी टूटते बदन के साथ ही घर पहुंचा। वह बैठा ही था कि उसकी माँ पानी का गिलास ले कर आ गयी। उसके चेहरे को माँ ने पढ़ ही लिया था। भाव स्पष्ट थे कि आज भी बात नहीं बनी। उसकी निराशा और न बढ़े, इसलिए माँ ने उससे न कुछ पूछा और न ही कुछ कहा। वह पानी का पूरा गिलास एक दम गटक गया। माँ ने इतना ही पूछा, "बेटे! और पानी लाऊं?"
राम निवास ने खाली गिलास माँ की ओर बढ़ा दिया, वह और पानी लेने चली गयी। वह खयालों में खो गया:

मकान को ठीक से देख लेने के बाद राम निवास मकान मालिक से बोला:
"सर, मुझे आपका मकान पसन्द है। आप किराया बताइए।"

"देखिये! किराया हम एडवांस ही लेते हैं भाई साहब।"

"जी, मैं अभी दो माह का एडवांस ही दे देता हूँ, आप बताइए तो सही। पिछले मकान मालिक का तकादा है कि हम जल्दी खाली करें। आज छब्बीस तारीख है हम समझते हैं कि इकत्तीस को ही शिफ्ट कर लें। क्योंकि उस दिन भी राजकीय अवकाश है, इसलिए हमें भी सुविधा रहेगी।"

"जी, पिछला किराएदार साढ़े नौ हज़ार प्रति महीना दे रहा था।"
"ये लीजिए दो महीनों का किराया बीस हज़ार रुपए, पहले ही।"

"देखिये! पहले कुछ बातें होती हैं। एक-दूसरे को जान लेना ठीक रहता है।"

"जी, बिल्कुल सही कहा आपने। मैं सरकारी सेवा में शिक्षक हूँ। मेरी धर्मपत्नी हरियाणा ग्रामीण बैंक में शाखा प्रबंधक है। इसी शहर में कार्यरत्त हैं। दो बिटिया हैं हमारी। मेरे माता-पिता हैं व छोटा भाई है जो राजकीय महाविद्यालय से एम एस सी गणित अंतिम वर्ष में पढ़ रहा है। किसी भी प्रकार की बुरी लत परिवार के किसी भी सदस्य को नहीं है। बाकी एग्रीमेंट के कागज़ भी तैयार करवाएँगे ही।"

"माता-पिता और भाई भी.......?"

"जी, क्या हुआ?"

"कुछ नहीं। पर जॉइंट फैमिली साथ रहेगी?"
मकान मालिक ने असहमति-सी जताते हुए प्रतिप्रश्न किया।

"देखिये सर, हमारी जरूरतों का ख्याल हमारे माता-पिता ने रखा। अब उन्हें हमारी जरूरत है। भाई छोटा है, वह भी हमारी ही जिम्मेवारी है, उसे क्यों छोड़ें?"

मकान मालिक मजबूरन सहमति जताते हुए बोला:
"बड़ा कठिन है। लेकिन अच्छी बात है कि आप सब लोग इकट्ठे रहते हैं।"

"ये लीजिए यह राशि संभालिये। किरायानामा तैयार करवा लेंगे। हम इकत्तीस को शिफ़्ट कर लेंगे।"

"जी, बहुत बढ़िया। पर.......?"

"अब पर क्यों भाई साहब? अब भी कोई दिक्कत है तो बता दीजिए।"

"देखिये। मैं गजेटेड अफसर हूँ। इन बातों को कोई महत्व नहीं देता, फिर भी आपकी जाति और बता देते तो...?"

"हमारी हैसियत क्या हमारा काम ही नहीं बता रहा सर? महत्व नहीं देते फिर भी पूछ रहे हो?"

"जी बस वैसे ही, बताइए तो।

"चमार।"

मकान मालिक का चेहरा उतर गया।

बनावटी मुस्कुराहट के साथ बोला, "मैनें कहा न कि मैं ऐसी बातों को कोई महत्व नहीं देता। फिर भी....?"
राम निवास गुस्से को पीते हुए विनम्रता से बोला, " अब क्या फिर भी सर?

"एक बार मैं अपने परिवार से पूछ लेता हूँ। आप मुझे दस मिनट दीजिए।"

वह घर के भीतर गया। अंदर से उसकी माता और पत्नी के ऊँचे स्वर से रामनिवास को परिवार का मन्तव्य पता चल ही गया। इससे पहले कि मकान मालिक बाहर आकर इस पर मुहर लगाता, वह वहाँ से चल दिया।

" ये ले बेटा पानी।"

माँ की आवाज़ से वह वर्तमान में लौटा।
उसने गिलास हाथ में पकड़ा और गुस्से में दांत पीसते हुए गर्दन को बायीं से दायीं और झटक दिया। फिर आँखों को जोर से भींचते हुए खोला और लम्बी सांस छोड़कर, चिंतित-सा पानी को चुस्की लेते हुए पीने लगा।

माँ ने हिम्मत देते हुए कहा, "चिंता मत कर बेटा।"

"माँ, जितने भी मकान इस बड़ी कॉलोनी में देखे, वे सारे बड़े-बड़े मकान हैं। उनमें रहने वाले आदमी भी बड़े ही कहे जाते हैं।"

"हाँ बेटा। यह बात तो है ही।"

"पर माँ, ज्यादातर में दिखावटी बड़प्पन है। विचार तो फर्क के गर्त में धँसे पड़े उनके। विचारों की नीचता इसको ही कहते हैं।"

"बेटा, आज भी जात पर ही बात अटक गई लगती है। ये फर्क तो कुदरत ने ही पैदा करा बेटा। इसमें इन मानसों का क्या दोष?"

"कुदरत ने तो सबको मानस ही बनाया है माँ, फर्क तो इन मानसों की प्रकृति में रम गया है। भगवान जाने कि कब तक यह प्रकृति पूरी तरह कुदरत के हिसाब से ढलेगी?"

अनपढ़ माँ को ये दार्शनिक बातें समझ तो न आयी, लेकिन वह बेटे के सिर पर हाथ फेरती हुई बोली, "चिंता न कर बेटे, जल्दी ही मकान मिल जाएगा।"

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