For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

दिख रहा इंसान है- ग़ज़ल

हर तरफ बस दिख रहा इंसान है
हाँ, मगर अपनों से वो अंजान है

थे कभी रिश्ते भी नाते भी मगर
आजतो यह सिर्फ इक सामान है

जिसको कहते थे कभी काबिल सभी
सबकी नज़रों में वो अब नादान है 

जिसको सौंपी थी हिफाज़त बाग़ की
बिक रहा उसका ही अब ईमान है 

हर तरफ बैठे शिकारी घात में
चंद लम्हों का वो अब मेहमान है

था कभी गुलज़ार जो शाम-ओ-सहर 
अब वही दिखने लगा शमशान है

जिसने देखे अम्न के सपने कभी
अब उसी का टूटता अरमान है 

जिसपे थे दंगों के छींटे कल विनय
अब वही तो क़ौम का भगवान है !!

मौलिक एवम अप्रकाशित

Views: 675

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by विनय कुमार on August 7, 2018 at 11:56am
बहुत बहुत आभार आ तस्दीक़ अहमद खान साहब
Comment by विनय कुमार on August 7, 2018 at 11:56am
बहुत बहुत आभार आ रवि शुक्ला साहब
Comment by Ravi Shukla on August 6, 2018 at 11:53pm

आदरणीय विनय जी , ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है बधाई स्वीकार करें

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on August 6, 2018 at 10:02pm

जनाब विनय कुमार साहिब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है   , मुहतरम समर साहिब के मशवरे से ग़ज़ल में निखार आ गया है , मुबारकबाद क़ुबुल फरमाएं l 

Comment by विनय कुमार on August 6, 2018 at 5:05pm

बहुत बहुत आभार आ नीलम उपाध्याय जी

Comment by Neelam Upadhyaya on August 6, 2018 at 4:51pm

आदरणीय विनय  कुमार जी, अच्छी रचना की प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई । 

Comment by विनय कुमार on August 6, 2018 at 11:54am

बहुत बहुत आभार आ संतोष खिरवाडकर जी

Comment by विनय कुमार on August 6, 2018 at 11:53am

बहुत बहुत आभार आ मुहतरम समर कबीर साहब, आपके निर्देशानुसार मैंने परिवर्तन कर दिया है. इसी तरह मार्गदर्शन करते रहिये, आभार

Comment by santosh khirwadkar on August 5, 2018 at 7:26pm

आदरणीय विनय जी , ग़ज़ल का शानदार प्रयास!

Comment by Samar kabeer on August 5, 2018 at 3:03pm

जनाब विनय कुमार जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,लेकिन ग़ज़ल अभी समय चाहती है,कई मिसरे बह्र में नहीं हैं ।

'मगर वह अपनों से ही अंजान है'

इस मिसरे को यूँ कर लें :-

'हाँ, मगर अपनों से वो अंजान है'

'कभी रिश्ते भी थे नाते थे, मगर'

इस मिसरे को यूँ कर लें:-

'थे कभी रिश्ते भी नाते भी मगर'

'जिसे कहते थे कभी काबिल सभी
सबकी नज़रों में अभी नादान है'

इस शैर को यूँ कर लें '-

'जिसको कहते थे कभी क़ाबिल सभी

सबकी नज़रों में वो अब नादान है'

'जिसको सौंपी थी हिफाज़त चमन की
वही तो सबसे बड़ा बेइमान है'

इस शैर को यूँ कर लें :-

'जिसको सौंपी थी हिफ़ाज़त बाग़ की

बिक रहा उसका ही अब ईमान है'

'कभी था गुलज़ार जो शामों सुबह
वही अब तो दिख रहा शमसान है'

इस शैर को यूँ कर लें :-

'था कभी गुलज़ार जो शाम-ओ-सहर

अब वही दिखने लगा शमशान है'

'जिसने देखे अमन के सपने कभी
उसी का अब टूटता अरमान है'

इस शैर को यूँ कर लें :-

'जिसने देखे अम्न के सपने कभी

अब उसी का टूटता अरमान है'

'वही अब तो, कौम का भगवान है'

इस मिसरे को यूँ कर लें :-

'अब वही तो क़ौम का भगवान है'

बाक़ी शुभ शुभ ।

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"यूॅं छू ले आसमाॅं (लघुकथा): "तुम हर रोज़ रिश्तेदार और रिश्ते-नातों का रोना रोते हो? कितनी बार…"
Tuesday
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"स्वागतम"
Sunday
Vikram Motegi is now a member of Open Books Online
Sunday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .पुष्प - अलि

दोहा पंचक. . . . पुष्प -अलिगंध चुराने आ गए, कलियों के चितचोर । कली -कली से प्रेम की, अलिकुल बाँधे…See More
Sunday
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय दयाराम मेठानी जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दयाराम जी, सादर आभार।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई संजय जी हार्दिक आभार।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. रिचा जी, हार्दिक धन्यवाद"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दिनेश जी, सादर आभार।"
Apr 27
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय रिचा यादव जी, पोस्ट पर कमेंट के लिए हार्दिक आभार।"
Apr 27
Shyam Narain Verma commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: ग़मज़दा आँखों का पानी
"नमस्ते जी, बहुत ही सुंदर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
Apr 27

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service