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एक ग़ज़ल- दिल को लगते बहुत भले हो

मापनी २२ २२ २२ २२

 

सुबह के’ मंजर से उजले हो,

दिल को लगते बहुत भले हो.

 

एक नजर देखा है जब से,

सपने जैसा दिल में’ पले हो.

 

सारी दुनिया जान गयी है,

तुम तो नहले पर दहले हो

 

पल पल धूप सही है हमने,

और पले तुम छाँव तले हो.

 

ताप  सहा हमने दर्दों का,    

मोम सरीखे तुम पिघले हो.

 

जिनको भी चाहा दुनिया में,

उनमें तुम सबसे पहले हो.

जम कर बैठ गए हो दिल में,

पल भर को भी कब निकले हो

"मौलिक एवं अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by बसंत कुमार शर्मा on September 6, 2017 at 1:05pm

आदरणीय   बृजेश कुमार 'ब्रज' जी दिल से शुक्रिया आपका 

Comment by बसंत कुमार शर्मा on September 6, 2017 at 1:04pm

आदरणीय Ajay Kumar Sharma जी आभार आपका 

Comment by बसंत कुमार शर्मा on September 6, 2017 at 1:04pm

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी आपके आशीष को सादर नमन 

Comment by बसंत कुमार शर्मा on September 6, 2017 at 1:03pm

आदरणीय Samar kabeer जी मार्गदर्शन हेतु दिल से शुक्रिया आपका 

Comment by Ajay Kumar Sharma on September 3, 2017 at 3:29pm
सुन्दर गजल.
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 2, 2017 at 11:37pm
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल हुई आदरणीय

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 2, 2017 at 6:33pm

आदरणीय बसंत भाई अच्छी गज़ल कही है बधाई स्वीकार करें ।

Comment by Samar kabeer on September 2, 2017 at 6:02pm
मतले के ऊला मिसरे में,तीसरे,पांचवें,छटे,और सातवें शैर में क़ाफ़िया बदलना होगा ।
Comment by बसंत कुमार शर्मा on September 2, 2017 at 10:42am

आदरणीय    Samar kabeer जी ,आपकी हौसलाअफजाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया दिल से ,मतले का काफिया या बाकी में भी कुछ काम    करना पड़ेगा ?, मार्गदर्शन करें 

Comment by बसंत कुमार शर्मा on September 2, 2017 at 10:40am

आदरणीय Mohammed Arif   जी ,आपकी हौसलाअफजाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया दिल से 

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