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बेपर्दा ....

तमाम शब्
अधूरी सी
इक नींद
ज़हन की
अंगड़ाई में
छुपाये रहती हूँ

इक *मौहूम सी
मुस्कान
लबों पे

थिरकती रहती है

सुर्ख रूख़सारों पे
ज़िंदा है
वो तारीकी की ओट में लिया
इक गर्म अहसास का
नर्म बोसा

डर लगता है
सहर की शरर
मेरी हया को
बेपर्दा न कर दे
जिसे छुपाया
अपनी साँसों से भी
कहीं ज़माने को

वो
ख़बर न कर दे

*मौहूम=भ्रमित

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on November 17, 2016 at 12:41pm

आदरणीय तेजवीर सिंह जी रचना के भावों प्रोत्साहन देती आपकी आत्मीय प्रशंसा का हार्दिक आभार। 

Comment by TEJ VEER SINGH on November 16, 2016 at 9:18pm

हार्दिक बधाई आदरणीय सुशील सरना जी।बेहतरीन कविता।

Comment by Sushil Sarna on November 16, 2016 at 12:54pm

आदरणीय समर कबीर साहिब प्रस्तुति को आत्मीय सम्मान देने का तहे दिल से शुक्रिया। आपका सुझाव और भी प्रभावशाली है। मैं इसे अभी एडिट कर पुनः प्रेषित करता हूँ। आपका हार्दिक हार्दिक आभार।

Comment by Samar kabeer on November 15, 2016 at 8:26pm
जनाब सुशील सरना साहिब आदाब,बहुत ख़ूब वाह, अच्छी लगी आपकी ये कविता भी,दिल से बधाई स्वीकार करें ।
14वीं पंक्ति'वो तारीक की ओट में लिया'इस पंक्ति को शायद यूँ होना था "वो तारीकी की ओट में लिया"क्या ये उचित है ?
Comment by Sushil Sarna on November 15, 2016 at 5:05pm

आदरणीय  लक्ष्मण रामानुज लडीवाला   जी प्रस्तुति में निहित भावों को स्वीकृति देती आपकी आत्मीय प्रशंसात्मक प्रतिक्रिया का दिल से आभार। 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 15, 2016 at 3:31pm

डर लगता है, सहर की शरर 
मेरी हया को बेपर्दा न कर दे, 
जिसे छुपाया अपनी साँसों से भी 
कहीं ज़माने को वो ख़बर न कर दे | -  बहुत खूब | असलियत में आज महिलाओं में खौफ है, दर है | जब कोई लडकी धर से निकलती है तो उसके घर लौटने तक माँ-बाप चिंतित रहते है | सुंदर रचना के लिए बधाई श्री सुशील सरना जी 

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