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कुण्डलिया छंद

नर-नारी-पशु-खग-विटप, हुए सभी बेहाल।
यू पी और बिहार में, हुई बाढ़ विकराल।।
हुई बाढ़ विकराल, काल सम बढती नदियाँ।
डूबे हर घर-बाग-खेत सब डूबी गलियाँ।।
प्रलय रूप धर आज, प्रकृति ज्यों उतरी भू पर।
ये उसका प्रतिशोध, विचारोगे कब हे! नर?

छप्पय छंद

कहीं बाढ़ विकराल, कहीं नर जल को तरसें।
कहीं सूखते खेत, कहीं घन अतिशय बरसें।।
कैसा है यह रूप, प्रकृति का कहा न जाए।
दोषी नर ही स्वयं, तभी तो दुख अति पाए।
नर नित्य प्रकृति का कर रहा, दोहन निज अनुसार है।
भूकम्प-बाढ़ के रूप में, कुपित प्रकृति की मार है।

रचना-रामबली गुप्ता
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Naveen Mani Tripathi on September 1, 2016 at 9:22pm
वाह बहुत सुन्दर लिखा आपने ।
Comment by रामबली गुप्ता on August 31, 2016 at 10:45am
हृदयतल से आभार आद० गोपाल नारायण जी आपके सुझावों से कविता को और भी निखरने का अवसर प्राप्त होता है। आपके सुझावों के अनुरूप ' बढ़ी बाढ़ विकराल' को 'हुई बाढ़ विकराल' कर लिया है तथा 'सुरसरि' के स्थान पर 'नदियाँ' कर लिया है। पुनः देख लीजियेगा। पुनश्च आभार
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 30, 2016 at 8:07pm

आ० रामबली जी आप उन रचनाकारों में है जिन्हें पढने की इच्छा होती है , कुण्डलिया में  बढ़ी  बाढ़ का क्या अर्थ है बाढ़  तो बढ़ने से ही बना है , दूसरी बात सुरसरि की प्रतिष्ठा उसके मोक्षदायिनी स्वरुप से है उसे काल सम दर्शाना मेरी समझ में  संस्कृति की संगति  में नहीं है  . छप्पय का प्रारंभ बहुत अच्छा है आगे श्रम में कुछ कमी  मुझे लगती है हो सकता है ऐसा न हो . सादर .

Comment by रामबली गुप्ता on August 29, 2016 at 10:47pm
हृदय से आभार आद० सुरेश कुमार जी
Comment by रामबली गुप्ता on August 29, 2016 at 10:46pm
हृदय से आभार आद समर कबीर साहेब
Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on August 29, 2016 at 5:36pm
आदरणीय श्री राम बली गुप्ता जी सुन्दर छंद रचना पर हार्दिक बधाई प्रेषित है । सादर ।
Comment by Samar kabeer on August 29, 2016 at 2:45pm
जनाब रामबली गुप्ता जी आदाब,बाढ़ से हुई तबाही पर बहुत बढ़िया कुण्डलिया छन्द हुए हैं,इस प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।

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