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दुश्मनों के डर को उसने अपना ही डर कर लिया 
और दामन  दोस्तों  के  खून  से  तर कर लिया ।1।
जब  नगर  में  रह न पाए  दोस्तो  महफूज हम 
आदिमों  के  बीच  हमने दश्त  में घर कर लिया ।2।
चोट  खाकर भी  हँसे  हैं   आँख  नम  होने न दी
सब गमों  को आज  हमने देखिए सर कर लिया ।3।
आपके तो  पर  परिंदों  फिर  भी  क्यों लाचार हो
हर कठिन परवाज  भी यूँ  हमने बेपर कर लिया ।4।
कह न  पाए  बात कोई हम जुबाँ रख के भी पर
बेजुबानी को  ही  उसने  यार  अक्षर  कर लिया ।5।
सच के  परचम  को  उठाना  बेबसी  सा था जिसे
घन के बल पर आज उसने झूठ ऊपर कर लिया ।6।
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मौलिक व अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
Comment
आ0 भाई सतविन्द्र जी गजल की प्रशंसा कर उत्साहवर्धन के लिए आभार ।
आ0 भाई केवल जी उपस्थिति व प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आ भाई शेखशहजाद जी गजल का मान बढ़ाने के लिए हार्दिक आभार ।
आ0 भाई तेजबीर जी , हार्दिक धन्यवाद ।
आ0 भाई रामबली जी, गजल का अनुमोदन और प्रशंसा के लिए तहेदिल से आभार ।
आ० लक्ष्मण भाई जी,  //कह न  पाए  बात कोई हम जुबाँ रख के भी पर
बेजुबानी को  ही  उसने  यार  अक्षर  कर लिया ।//  बहुत खूब...दाद कुबूल करें.  सादर
हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी जी! बेहतरीन गज़ल!
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