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ग़ज़ल -- कश्तियाँ बरसात में

2122-2122-2122-212

.

मुस्कुरा कर कह रही कुछ झुर्रियाँ बरसात में
देखीं थीं हमने कभी रंगीनियाँ बरसात में
.
आज का बचपन न जाने कौन सी चिन्ता में गुम
अब नहीं कागज़ की दिखतीं कश्तियाँ बरसात में
.
ज़ेह्न में रच बस गया है अब तो उनका ज़ायका
माँ खिलाती थी हमें जो पूरियाँ बरसात में
.
आज घर में शाम को चूल्हा जलेगा किस तरह
कह रही मजदूर की मजबूरियाँ बरसात में
.
मेरे घर की छत गिरी थी या गिरा था आसमाँ
जो हुईं उस रात थीं दुश्वारियाँ बरसात में
.
मौलिक व अप्रकाशित .

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 6, 2015 at 1:02am

वाह वाह ! दाद कुबूल कीजियेभाईजी.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on June 25, 2015 at 10:15pm

आदरणीय दिनेश भाई जी बेहतरीन ग़ज़ल हुई है.

दिल से दाद हाज़िर है....

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 19, 2015 at 9:15pm

आज घर में शाम को चूल्हा जलेगा किस तरह

कह रही मजदूर की मजबूरियाँ बरसात में

बेहतरीन दिनेश सर!हर शेर बेहतरीन! ढेरों दाद!

Comment by shree suneel on June 18, 2015 at 10:30pm
मुस्कुरा कर कह रही कुछ झुर्रियाँ बरसात में
देखीं थीं हमने कभी रंगीनियाँ बरसात में... क्या बात है!
बधाइयाँ.. बधाइयाँ.. आपको आदरणीय.

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 18, 2015 at 3:06pm

आदरणीय दिनेह भाव्व , लाजवाब ग्ज़ल कही है , हार्दिक बधाइयाँ आपको ।

Comment by वीनस केसरी on June 18, 2015 at 1:43pm

वाह वा दिनेश साहब .. मुरस्सा ग़ज़ल हुई है ... ढेरो दाद

Comment by Samar kabeer on June 17, 2015 at 11:22pm
जनाब दिनेश कुमार जी,आदाब,बहुत ही अच्छी और मुकम्मल ग़ज़ल कही है आपने,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।

मतले के ऊला मिसरे में "रही" को "रहीं" कर लें ।
Comment by Ram Ashery on June 17, 2015 at 7:51pm

सुंदर गजल के लिए सहृदय आपको बधाई हो

 

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 17, 2015 at 6:55pm

सुन्दर गज़ल हेतु दाद कुबूल फरमाए. आ0 दिनेश भाई जी. सादर

Comment by Rahul Dangi Panchal on June 17, 2015 at 5:45pm
वाह वाह वाह लाजवाब गजल

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