टूट टूट के अपना दिल कुछ जाली सा हो गया
अंतरमन का वो कोना कुछ खाली सा हो गया
वस्ल की निगाहें हो गयी, दोस्ती की आड़ में
नारी होकर जीना अब कुछ गाली सा हो गया
नजरों में घुली शराब, चाचा मामा भाई की
आँखों में हर रिश्ता, अब कुछ साली सा हो गया
गर्दिश में लिपटी कनीज़, सहारे की तलाश में
मन अकबर शज़र का भी, कुछ डाली सा हो गया
शोर में दब के रह गयी आबरू की आवाज
चीखती ललना का स्वर, बस ताली सा हो गया
हारकर जब उसने सर रखा था मेरे काँधे पर
कैसे बताऊँ “निधि” मेरा मन माली सा हो गया
निधि अग्रवाल
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आ० निधि ज़ी सर्वप्रथम इस बेहतरीन रचना पर हार्दिक बधाई,आप के ख्यालात बहुत ही साफ है,मतलब उधेड़बुन नही है,आप सटीक लिखती है,आप की रचनाओं में ताजगी का यही मूल है,बहर में लिखने का प्रयास ज़ारी रक्खें मै ये अवश्य कहना चाहूँगा आगे आपकी मर्जी सादर !
बहोत खूब भाव पूर्ण रचना
अच्छी गजल है , बेहतरीन . सुन्दर . अखरा तो केवल यह-
हर रिश्ता अब कहीं न कहीं, कुछ नाली सा हो गया
आदरणीय वीनस जी .. मुझे बह्र में लिखना नहीं आता .. बनता ही नहीं
जब भी बह्र में लिखने की कोशिश की .. रचना के भाव बदल गए.. इसलिए जब भी रचना का भावपक्ष सशक्त होता है मैं पद के वज्न का ख्याल रखने की कोशिश करती हूँ .. बहुत कम बार मैं किसी बहर में लिख पायी .. इसलिए अगर रचना पढ़ कर बहर पहचान न पाने की शिकायत है तो माफ़ करें क्योंकि मैंने कोई बहर पकड़ कर नहीं लिखा है वीनस जी
स्ल की निगाहें हो गयी, दोस्ती की आड़ में
नारी होकर जीना अब कुछ गाली सा हो गया
नजरों में घुली शराब, चाचा मामा भाई की
हर रिश्ता अब कहीं न कहीं, कुछ नाली सा हो गया...
बहुत ही खूबसूरत और भावपूर्ण....
रचना के लिए सादर बधाई स्वीकार करे आदरणीय निधि अग्रवाल जी
शोर में दब के रह गयी आबरू की आवाज
चीखती ललना का स्वर, बस ताली सा हो गया
वाह बहुत खूब
रुक्न या मात्रा लिख दिया करें तो बहर समझने में आसानी हो जाती है
सादर
पूरे पुरुषीय समाज की मानसिकता को उधेड़ कर रख दिया ,निधि जी ,बधाई |
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