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अतुकांत - हार जाने के डर से छिपाये हुये तर्क - ( गिरिराज भंडारी )

हार जाने के डर से छिपाये हुये तर्क

*******************************

कोरी बातों से या आधे अधूरे समर्पण से  

किसी भी परिवर्तन की आशायें व्यर्थ है

जब तक आत्मसमर्पण न कर दें आप

तमाम अपने छुपाये हुये हथियारों के साथ

अंदर तक कंगाल हो के

सद्यः पैदा हुये बालक जैसे , नंगा, निरीह और सरल हो के

सत्य के सामने या

वांछित बदलाव के सामने 

 

आपके सारे अब तक के अर्जित ज्ञान ही तो

हथियार हैं आपके

वही तो सुझाते हैं आपको तर्क – कुतर्क  

अपने पक्ष में

हर शुभ बदलाव के विरुद्ध

 

जो तर्क सामने आते हैं

सत्य रूपी ब्रम्हास्त्र से हार जाते हैं , जो स्वाभाविक है

आप घबरा के हो जाते हैं मौन , बाक़ी हथियार छुपाये , तात्कालिक मौन

केवल बाहरी तौर पर मौन

ऐसे , जैस कि आप हार चुके हों

सब कुछ , पर

बचा ले जाते हैं आप अपने थोथे तर्क

छिपा कर , अपने अंदर कहीं

वो तर्क जो कंगाल हो जाने के भय से नहीं निकाले गये

सत्य के सामने

वो तर्क जिन्हें रोप के आप पैदा कर लेंगे

हज़ारों और बेहूदे तर्क

 

ठीक वैसे ही, जैसे बचाया जाता है जामन

दही के लिये , मटकी में

 

फिर कोई कितना भी अमृत – दूध डाले

मटकी में छिपा- बचा हुआ जामन

बना देता है उसे

रातों रात फिर से दही

 

आप होशियार हैं

कभी भी नहीं धोते आप मटकी को ऐसा / इतना

कि , न बच पाये जामन , रंच मात्र भी  

क्यों कि , आपको दही से प्यार जो है ॥

**************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 23, 2015 at 10:40am

आदरनीय मिथिलेश भाई , रचना की सराहना के लिये आपका दिली शुक्रिया ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 23, 2015 at 5:43am

आदरणीय गिरिराज सर, इस शानदार कविता की प्रस्तुति पर विलम्ब से उपस्थित हो पाया, देखता हूँ शब्दों का जादू हो गया है, दर्शन करामात दिखा रहा है, मन चकित है, आप बस कमाल है, नमन इस प्रस्तुति पर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 19, 2015 at 12:36pm

आदरणीय समर कबीर भाई , आप अतुकांत रचनायें भी देखते रहे हैं जान कर खुशी हुई , आपका आभारी हूँ ।\


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 19, 2015 at 12:35pm

आदरणीय श्री सुनील भाई , रचना से आपको संतुष्ट देख कर आत्मिक खुशी हुई , कुछ सहेजने लायक कहना रचना कार को और अच्छा करने के लिये उत्साहित कर रहा है । आपका हृदय से आभारी हूँ ॥

Comment by Samar kabeer on April 18, 2015 at 10:29am
जनाब गिरिराज भंडारी जी,आदाब,ओ.बी.ओ पर आपकी सभी कविताऐं पहले से ही पढ़ता आ रहा हूँ,आपका लेखन मुझे पसंद है |
Comment by shree suneel on April 18, 2015 at 9:57am
आदरणीय गिरिराज सर, उच्च स्तरीय और गूढ़ ज्ञान पर प्रकाश डालती इस कविता के लिए बहुत-बहुत बधाई.
/ कोरी बातों से या आधे अधूरे समर्पण से
किसी भी परिवर्तन की आशायें व्यर्थ है...
/आपके सारे अब तक के अर्जित ज्ञान ही तो
हथियार हैं आपके...
/वो तर्क जिन्हें रोप के आप पैदा कर लेंगे
हज़ारों और बेहूदे तर्क...
सहेज कर रखी जाने वाली इस सुन्दर कविता के लिए पुनः बधाई सर.

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 18, 2015 at 6:12am

आदरणीय वीनस भाई , आपकी उपस्थिति से रचना गौरवांवित हो गई , सराहना के लिये आपका  बहुत बहुत आभार ॥

Comment by वीनस केसरी on April 18, 2015 at 2:35am

इस शानदार कविता के लिए हार्दिक बधाई ...


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 17, 2015 at 10:55pm

आदरणीय कृष्णा भाई , रचना की सराहना कर उत्साह वर्धन करने के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ॥

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 17, 2015 at 10:47pm

वो तर्क जिन्हें रोप के आप पैदा कर लेंगे

हज़ारों और बेहूदे तर्क

ठीक वैसे ही, जैसे बचाया जाता है जामन

दही के लिये , मटकी में                                             ये पंक्तियाँ तो काट गई सीने को,लाजव़ाब!

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