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अब बसन्त नहीं आएगा: कविता :हरि प्रकाश दुबे

एक पतंग

भर रही थी

बहुत ऊँची उड़ान

विस्तृत गगन में

जैसे, जाना चाहती हो

आसमान को चीरती, अंतरिक्ष में

लहराती, बलखाती, स्वंय पर इठलाती

दे ढील दे ढील, सभी एक स्वर में चिल्ला रहे थे !

कई चरखियाँ

खत्म हो गयीं

सद्दीयों के गट्टू  

मान्झों  के गट्टू

गाँठ, बाँध-बाँध कर

एक के बाद एक ऐसे जोड़े गए

जैसे ये अटूट बंधन है ,कभी नहीं टूटेगा

वो काटा, वो काटा पेंच पर पेंच  लडाये जा रहे थे !

तालियाँ बजीं

तड़- तड़- तड़

अब कौन रोकेगा

इसकी उड़ान को

तभी, कुछ डुग्गे आये

आखिर उनको भी, हक़ था उड़ने का

अब आसमान में, युद्ध शुरू हो चुका था

ये आसमानी खींचतान , नियम दुहराये जा रहे थे !

अब यह क्या

कट गयी पतंग

नीचे गिरने लगी

धरती  की तरफ

जैसे, खींच रहा हो उसे

गरूत्वाकर्षण, क्रिया–प्रतिक्रया का नियम

अब कट गयी तो कट गयी, दूसरी देखो, यह बोल  

जाने किस काँच का माँझा लिए, डुग्गे, मुस्करा रहे थे !

 

इधर पतंग के घर वालों की जिंदगी, उलझी डोर बन गयी

अब बसन्त नहीं आएगा, यह कह-कह कर रोये जा रहे थे !!

 

© हरि प्रकाश दुबे

"मौलिक व अप्रकाशित"

 

 

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Comment

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Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 7, 2015 at 9:35am

सुंदर रचना पर बधाई आदरणीय!

Comment by Dr. Vijai Shanker on April 6, 2015 at 9:34pm
इधर पतंग के घर वालों की जिंदगी, उलझी डोर बन गयी
अब बसन्त नहीं आएगा, यह कह-कह कर रोये जा रहे थे !!
बहुत ही भावुक प्रस्तुति, बधाई , आदरणीय हरी प्रकाश दुबे जी,सादर।
Comment by Shyam Mathpal on April 6, 2015 at 8:16pm

आदरणीय हरिप्रकाश ji,

बहुत सुन्दर रचना. ढेरों बधाई .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 6, 2015 at 4:44pm

आदरणीय हरिप्रकाश भाई जी सुन्दर प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई 

Comment by Neeraj Neer on April 6, 2015 at 10:27am

बहुत सुन्दर रचना ... हम सबका जीवन पतंग सा  ही तो  है... पतंग का प्रतीक के रूप मं सुन्दर प्रयोग ... बहुत बधाई आदरणीय 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 6, 2015 at 8:53am

आ० हरी प्रकाश जी

सुन्दर रचना . पतंग का प्रतीक्लेकर अपनी अच्छी प्रस्तुति दी . सादर .

Comment by कवि - राज बुन्दॆली on April 6, 2015 at 8:32am
आदरणीय वाह क्या बात है सुंदर रचना हेतु बधाई आपको ।

कृपया ध्यान दे...

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