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इस 'अदालत में ये क़ातिल सच ही फ़रमावेंगे क्या
वैसे भी इस गुफ़्तगू से ज़ख़्म भर जावेंगे क्या
आप आ'ला हैं तो हमको हक़ हमारा दीजिये
आपके रहम-ओ-करम पे जीस्त जी पावेंगे क्या
कौन दे है नौकरी सिर्फ़ इल्म की अस्नाद पर
डिग्रियाँ लेते रहे यूँ ही तो फिर खावेंगे क्या
आप अपने दर्द की बुनियाद भी तो देखिये
दर्द में ये चारागर कोई कमी लावेंगे क्या
दश्त भी वहशत में आये हिज़्र है ऐसी ख़ला
मयकशी से इस ख़लिश में राहतें पावेंग क्या
ज़िंदगी प्यारी है ग़र तो राह से हट जाईये
ख़ुद से डरते हैं जुनूँ में जाने कर जावेंगे क्या
फिर वही दिल की तमन्ना फिर वही दिल की कशिश
हम उसी ग़लती को अबके फिर से दुहरावेंगे क्या
रास्ता रोके खड़ी हैं जाने कितनी आँधियाँ
आप तो झोका हैं अब झोके से घबरावेंगे क्या
हमको तो मालूम है सारी हक़ीक़त जीस्त की
इस बहार-ए-जीस्त पर हम लोग इतरावेंगे क्या
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय तमाम जी, आपने भी सर्वथा उचित बातें कीं। मैं अवश्य ही साहित्य को और अच्छे ढंग से पढ़ने का प्रयास करूँगा। अलबत्ता, आप आगे यह भी समझाएँ कि साहित्य में मुझे क्या-क्या पढ़ जाना चाहिए ताकि आपकी रचनाओं को समझने में मुझे सहजता हो।
सादर
आदरणीय सौरभ जी सह सम्मान मैं यह कहना चाहूँगा की आपको साहित्य को और अच्छे से पढ़ने और समझने की आवश्यकता है मैं आपको हर बात पर विस्तार से नहीं समझा पाऊँगा इतना समय भी नहीं है और इसकी आवश्यकता भी नहीं बहुत से सुखनवरों का कलाम है आप स्वयम पढ़ लीजिये
सादर
आदरणीय आजी तमाम भाई, आपकी प्रस्तुति पर आ कर पुरानी हिंदी से आवेंगे-जावेंगे वाले क्रिया-विषेषण से सामना हो रहा है, जिसे अब भाषा छोड़ चुकी है. इनके स्थान पर आएँगे-जाएँगे अब स्वीकार्य और मान्य हो चुके हैं.
फिर, इनका उपयोग दूसरी तरह से आज भी कहीं-कहीं हो जाता है. जब किसी कार्य को अन्य से करवाये जाने की संभावना बनती हो. इस लिहाज से मात्र एक शेर खरा उतरता है -
रास्ता रोके खड़ी हैं जाने कितनी आँधियाँ
आप तो झोका हैं अब झोके से घबरावेंगे क्या ... अर्थात, अर्थ निकलता है, आप झोंके से (हमें) घबरवावेंगे क्या ?
प्रयोग किया जाना या अपने हिसाब से नया करने का प्रयास अच्छा है. यह नवाचार का परिचायक भी है. लेकिन मान्य वैन्यासिक गठन के प्रति सचेत रहना अधिक उचित है.
फिर, ज़िंदगी प्यारी है ग़र तो राह से हट जाईये ... आप यह ’जाईए’ कहाँ से ले आए ? कहाँ देखा है ? यदि कोई मान्य स्रोत हो तो हमें भी बताइएगा. हम भी जानकार होना चाहेंगे.
बहरहाल, इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक धन्यवाद ..
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय निलेश सर ग़ज़ल पर नज़र ए करम का
देखिये आदरणीय तीसरे शे'र में सुधार का प्रयास किया है अगर सार्थक हो सका हो तो
कौन दे है नौकरी सिर्फ़ इल्म की अस्नाद पर
डिग्रियाँ लेते रहे यूँ ही तो फिर खावेंगे क्या
आ. आज़ी तमाम भाई,
अच्छी ग़ज़ल हुई है .. कुछ शेर और बेहतर हो सकते हैं.
जैसे
इल्म का अब हाल ये है सोचते हैं नौजवाँ
डिग्रियाँ लेते रहे यूँ ही तो फिर खावेंगे क्या... यहाँ इल्म और डिग्री का खाने से सीधा सम्बन्ध नहीं है .. नौकरी न मिलने का रेफरेंस होना था.
दश्त भी वहशत में आ जाये है हिज़्र ऐसी ख़ला.. अलिफ़ वस्ल के बाद भी मिसरा अटकता सा लग रहा है
दश्त भी वहशत में आए हिज़्र है ऐसी ख़ला
.
बस ऐसे ही
सादर
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सुरेंद्र इंसान जी इस ज़र्रा नवाज़ी का
बहुत शुक्रिया आदरणीय भंडारी जी इस ज़र्रा नवाज़ी का
आदरणीय आज़ी भाई आदाब।
बहुत बढ़िया ग़ज़ल के लिए बधाई स्वीकार करे जी।
आदरनीय आजी भाई , अच्छी ग़ज़ल कही है हार्दिक बधाई ग़ज़ल के लिए
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