आदरणीय काव्य-रसिको !
सादर अभिवादन !!
’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ एकहत्तरवाँ आयोजन है।
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छंद का नाम - मुकरिया/ कहमुकरिया छंद
आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ -
20 सितंबर’ 25 दिन शनिवार से
21 सितंबर’ 25 दिन रविवार तक
केवल मौलिक एवं अप्रकाशित रचनाएँ ही स्वीकार की जाएँगीं.
मुकरिया/ कहमुकरिया छंद के मूलभूत नियमों के लिए यहाँ क्लिक करें
जैसा कि विदित है, कई-एक छंद के विधानों की मूलभूत जानकारियाँ इसी पटल के भारतीय छन्द विधान समूह में मिल सकती हैं.
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आयोजन सम्बन्धी नोट :
फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ - 20 सितंबर’ 25 दिन शनिवार से 21 सितंबर’ 25 दिन रविवार तक रचनाएँ तथा टिप्पणियाँ प्रस्तुत की जा सकती हैं।
अति आवश्यक सूचना :
छंदोत्सव के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है ...
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मंच संचालक
सौरभ पाण्डेय
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
Tags:
रात दिवस केवल भरमाए।
सपनों में भी खूब सताए।
उसके कारण पीड़ित मन।
क्या सखि साजन! नहीं उलझन।
सोच समझ सब पर छा जाए।
शांत चित्त को नजर लगाए।
वो छीने जीवन की सुविधा।
क्या सखि साजन! ना सखि दुविधा।
तरुणाई की चिंता भारी।
उसके पीछे खुशियाँ सारी।
मन को रहता जिसका डर।
क्या सखि साजन! नहीं फ्यूचर।
कर दे जो सपनों को पूरा।
उसके बिन सब लगे अधूरा।
भाग्य द्वार की जो है नॉब।
क्या सखि साजन? ना सखि जॉब।
बस उलझन या दुविधा लाता।
फ्यूचर में ना जॉब लगाता।
कभी सहे ना जीवन मंच।
क्या सखि साजन! नहीं प्रपंच।
(मौलिक व अप्रकाशित)
कह मुकरियां :
(1)
क्या बढ़िया सुकून मिलता था
शायद वो मिजाज छनता था
लेकिन यकायक बदला स्वाद
क्यों सखि साजन? नहीं अवसाद !
(2)
अमराई सब सूना - सूना
कब बैठता आकर पाहुना
शायद हो गई भारी भूल
क्यों सखि साजन? नहिं री बबूल!
(3)
पात - पात वो ज़र्द हुआ है
सुनसान लो मार्ग हुआ है
जिधर देखो पसरा है मौन
क्यों सखि साजन? नहीं खग- मौन !
(4)
खाली- खाली निर्जन सा वन
दर्पन नहीं सुहाता अनशन
अंसल पाटी ले पड़ जाऊँ
क्यों सखि साजन? नहीं खड़ाऊँ
वन- उपवन में नाचता मोर
धड़कनों दिल पलता है शोर
कहाँ गया वो रंगीला आज
क्यों सखि साजन? नहिं री बाज
मौलिक व अप्रकाशित
मुकरियाँ
+++++++++
(१ )
जीवन में उलझन ही उलझन।
दिखता नहीं कहीं अपनापन॥
गया तभी से है सूनापन।
क्या सखि साजन,ना सखि बचपन॥
( २ )
अकेले चलना है दुश्वार॥
राह सैकड़ों मोड़ हजार॥
करती याद उसे मन ही मन।
क्या सखि साजन, ना सखि भगवन॥
( ३ )
विकल्प बीसों से है दुविधा।
साथ एक हो तो है सुविधा॥
एक वही है मेरा सहचर।
क्या सखि साजन, ना सखि गिरिधर॥
+++++++++++++++
मौलिक अप्रकाशित
कह मुकरियाँ ....
जीवन तो है अजब पहेली
सपनों से ये हरदम खेली
इसको कोई समझ न पाया
ऐ सखि साजन? ना सखि छाया
*
मन की उलझन समझ न आती
सुलझाऊँ तो सुलझ न पाती
रात झरोखे से वो आया
ऐ सखि साजन? ना सखि छाया
*
कभी सवालों सा वो आए
कभी जवाबों सा वो छाए
सपन अजब ये समझ न आया
ऐ सखि साजन? ना सखि छाया
*
सांझ ढले हौले से आता ।
भोर काल में वो खो जाता ।
अन्धकार में लगता प्यारा ।
ऐ सखि साजन ? ना सखि तारा ।
*
तारे गिन- गिन बीती रैना
हर आहट पर चौंके नैना
उसे देख कर धड़के छाती
ऐ सखि साजन ? ना सखि पाति
मौलिक एवं अप्रकाशित
कभी इधर है कभी उधर है
भाती कभी न एक डगर है
इसने कब किसकी है मानी
क्या सखि साजन? नहीं जवानी
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खींच- खाँच कर इसे सँभाला
फिर भी बढ़ता भ्रम का जाला
कच्ची ही रहती है सींवन
क्या सखि साजन?ना सखि जीवन
__
मुझे दूर से पास बुलाता
छूना चाहूँ फुर हो जाता
कभी पराया कभी है अपना
क्या सखि साजन?ना सखि सपना
__
रातों की नींदें उड़वाती
खड़ी दूर ही है मुस्काती
बिन इसके न मिले छोकरी
क्या सखि साजन?नहीं नौकरी
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मौलिक व अप्रकाशित
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