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आज़ादी --- डॉ o विजय शंकर

उड़ता वो आज़ाद परिंदा
नभ छू लेने की कोशिश
करता है,
ऊंचा , ऊंचा उड़ता है |
बीच बीच में धरती छूने ,
लौट , लौट कर आता है ,
कुछ चुंगता है, कुछ खाता है,
इठलाता है, कुछ गाता है ,
फिर , फुर्र से उड़ जाता है ,
दूर, बहुत दूर , ओझल हो ,
क्षितिज तरफ वो जाता है ,
क्षितिज तरफ वो जाता है ||
यूँ आते - जाते हमको वो
अपने हौसले दिखलाता है ,
और हमको यह बतलाता है,
हौसलों से क्या नहीं हो जाता है,
हौसलों से क्या नहीं हो जाता है ॥

एक परिंदा पिंजड़े में है ,
खाता है , पीता है ,
गाता है , सोता है ,
सबका मन बहलाता है,
फुर फुर्र भी वो करता है ,
बस उड़ नहीं वो पाता है ,
जोर बहुत वो लगाता है,
थक जाता है, सो जाता है,
फिर जागता है, खाता है ,
गाता है , फिर सो जाता है ,
वह हमको यह बतलाता है,
कुछ ऐसा भी है , बेशक है,
जो हो नहीं सकता है ,
कितना जोर लगा ले परिंदा
पिंजड़ा लेके नहीं उड़ सकता है।
यह ऐसा है जो हो नहीं सकता ,
पिंजड़े में बंद रहते हुए ,
वो कभी उड़ नहीं सकता है ॥
वो कभी उड़ नहीं सकता है ॥


मौलिक एवं अप्रकाशित.
डा० विजय शंकर

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Comment by मिथिलेश वामनकर on February 18, 2015 at 11:24pm

परिंदे के माध्यम से जीवन के महत्वपूर्ण तथ्यों को उजागर करती सुन्दर कविता हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय डॉ विजय शंकर सर....

Comment by Samar kabeer on February 18, 2015 at 10:59pm
जनाब डा.विजय शंकर जी,आदाब,इस सुन्दर रचना के लिये बधाई स्वीकार करें |
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 18, 2015 at 9:48pm

एक तरफ आजादी, तो दूजी ओर विवशता का, बहुत सुंदर चित्र खींचा है आपने आदरणीय डा. विजय जी. बहुत-बहुत बधाई


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 18, 2015 at 8:31pm

स्वतंत्रता और परतंत्रता दोनों पहलुओं को रचना में शब्दबद्ध किया है बहुत खूब ...हार्दिक बधाई आपको आदरणीय 

Comment by somesh kumar on February 18, 2015 at 6:43pm

दो परिंदे या दो लोग ,जो भी हो मुक्ति और पिंजरबंद जीवन के फ़र्क को बहुत सरलतम ढंग पर सफ़लता पूर्वक अभिव्यक्त किया है |

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