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दम रखेगा जो परों में- एक गजल

मापनी २१२२ २१२२ २१२२ २१२२ 

आदमी गुम हो गया है आज ईंटों पत्थरों में

है कहाँ परिवार वो जो पल्लवित था छप्परों में

 

हँसते-हँसते जान दे दी दौर वो कुछ और ही था  

ढूँढना इंसानियत भी अब कठिन है खद्दरों में

 

आपने हमको सुनाया गीत के मुखड़े में’ दम है     

इल्तजा है जोश जारी आप रखिये अंतरों में

 

आम की सारी जड़ें तो खा गई चुपचाप दीमक

और जनता देश की उलझी रही बस बंदरों में

 

आगमन घर में अतिथि का आज कल होता कहाँ है 

कुर्सियाँ खाली मिलेंगी आपको अक्सर घरों में

 

यदि गरीबी में किसी ने साथ छोड़ा, क्या नया है

भाव कोई भी न देता रस न हो यदि संतरों में

 

डोरियों पर बैठकर तो छू न पाओगो गगन को

आसमाँ गर चूमना हो दम रखो अपने परों में

"मौलिक एवं अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by Mohammed Arif on October 27, 2018 at 11:58am

आदरणीय बसंत कुमार जी आदाब,

                    बहुत ही सामयिकता का पुट लिए और दर्द को बयाँ करती बहुत ही अच्छी ग़ज़ल ।.शे'र दर शे'र दाद के साथ दिली मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए । बाक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे ।

Comment by Ajay Tiwari on October 27, 2018 at 7:48am

आदरणीय बसंत जी, अच्छे अशआर हुए हैं. हार्दिक बधाई.

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 26, 2018 at 10:07pm

आ. भाई बसंत जी, सादर अभिवादन । अच्छी गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।

आगमन घर में अतिथि का आज कल होता कहाँ  

यह पंक्ति बह्र में नहीं है देखियेगा।

Comment by बसंत कुमार शर्मा on October 26, 2018 at 9:24pm

शुभ संध्या आदरणीय तेजवीर सिंह जी, दिल से शुक्रिया आपकी हौसलाअफजाई का 

Comment by TEJ VEER SINGH on October 26, 2018 at 5:48pm

हार्दिक बधाई आदरणीय बसंत कुमार जी।बेहतरीन गज़ल।

डोरियों पर बैठकर तो छू न पाओगो गगन को

आसमाँ जीतेगा’ वो ही दम रखेगा जो परों में

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