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ग़ज़ल...कभी तो दिल को करार आये-बृजेश कुमार 'ब्रज'

121 22 121 22 121 22 121 22
कभी जरा सा मैं मुस्कुरा लूँ कभी तो दिल को करार आये
कभी तो भूले से इस चमन में उतर के फ़स्ल-ए-बहार आये

कि इससे पहले ये साँस टूटे सफ़ीना डूबे ये ज़िन्दगी का
चले भी आओ सनम कहीं से कहाँ कहाँ हम पुकार आये

बड़ी अदा से नजर झुकाये वो पूछते हैं कहाँ थे अब तक
सुनाये कैसे वो आपबीती वो ज़िन्दगी जो गुजार आये

हजार लम्हे हजार बातें जिन्हें तड़पता ही छोड़ आया
वो शाम वो गेसुओं के साये वो याद फिर बेशुमार आये

समझ न आये विदाई की भी ये रीत कैसी है प्यारे बाबुल
अभी घड़ी खेलने की आई उठाये डोली कहार आये

अभी समेटे थे हौंसले 'ब्रज' तभी ये वैरन थकान आई
हमारे जीवन में ऐसे लम्हे न जाने क्यों बार बार आये
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 29, 2018 at 7:54pm

रचना पटल पे आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं आभार आदरणीय डा. साहब..

Comment by Dr Ashutosh Mishra on March 29, 2018 at 5:27pm

आदरणीय भाई ब्रिजेश जी ग़ज़ल पढ़कर आनंद आया ..एक शेर पर थोड़ी उलझन हुयी थी लेकिन आदरणीय समर सर की प्रतिक्रिया से शंका का निवारण हो गया ..बहुत बहुत बधाई आपको सादर 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 29, 2018 at 8:51am

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय त्रिपाठी जी..

Comment by Naveen Mani Tripathi on March 28, 2018 at 9:31pm

साहब शेर दर शेर उम्दा ग़ज़ल हुई हार्दिक बधाई आपको ।कबीर सर की इस्लाह काबिल ए गौर है ।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 27, 2018 at 4:51pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सुरेन्द्र जी..सादर

Comment by surender insan on March 27, 2018 at 11:08am

वाह बहुत अच्छी चर्चा।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 26, 2018 at 11:47pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय महाजन जी..सादर

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 26, 2018 at 11:47pm

आदरणीय समर जी आज आपकी टिप्पड़ी ने मुझे प्रसन्नता से भर दिया..ह्रदय में संजो के रखूँगा आपके शब्दों को..और निश्चय ही मैं आपके बताये अनुसार सुधार करूँगा..स्नेह बनाये रखें..सादर

Comment by Harash Mahajan on March 26, 2018 at 10:52pm
  • वाह आदरणीय ब्रजेश जी बहुत ही खूब ग़ज़ल हुई है ।
  • चर्चाएं भी पढ़ीं ।
  • बहुत ही ज्ञानवर्धक रहा ।

सादर ।

Comment by Samar kabeer on March 26, 2018 at 9:26pm

जनाब बृजेश जी ,फ़िल्मी गीतों की मिसालें मेरी नज़र में मान्य नहीं हैं,रेख़्ता पर जो ग़ज़लें आपने पढ़ी हैं वो सब या तो सही शब्द जानते नहीं या अपनी आसानी के लिए जान बूझ कर ये ग़लती कर गए,एक अच्छे और समझदार शाइर को सही शब्दों का ही इस्तेमाल करना चाहिए,प्रचलन कहकर कई लोग इस तरह की ग़लतियाँ करते हैं,लेकिन आप मेरी नज़र में ऐसे फ़नकार हैं जो ख़ूब से ख़ूब तर की तरफ़ गामज़न है, आप अपनी ग़ज़लों में सही शब्दों का ही इस्तेमाल करें ,सही शब्द "उम्र" है और आप चाहें तो इस मिसरे को इस तरह लिख सकते हैं :-

'अभी तो थी उम्र खेलने की...'

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