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ग़ज़ल- सर पे मेरे तभी ईनाम न था।

बह्र - फाइलातुन मफाइलुन फैलुन

काबिले गौर मेरा काम न था
सर पे मेरे तभी ईनाम न था।

मैं जिसे पढ़ गया धड़ल्ले से,
वाकई वो मेरा कलाम न था।

हाट में मोल भाव क्या करता,
जेब में नोट क्या छदाम न था।

लोग मुँहफट उसे समझते थे,
जबकि वो शख्स बेलगाम न था।

गाँव के गाँव बाढ़ से उजड़े
बाढ़ का कोई इन्तजाम न था।

सर झुकाया नहीं कभी उसने,
वो शहंशाह था गुलाम् न था।

उसका मालिक तो बस खुदा ही था,
घर में जिनके दवा का दाम न था।

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on December 17, 2017 at 6:41pm

अच्छी ग़ज़ल हुई आदरणीय...बधाई

Comment by Kalipad Prasad Mandal on December 17, 2017 at 5:41pm

आ राम अवध् जी ,नमन , बेहतरीन ग़ज़ल कहीं आपने, मुझे पसंद आया ,शिल्प के बारे में गुणी जन बताएँगे 

Comment by नाथ सोनांचली on December 17, 2017 at 4:45pm

आद0 रामअवध जी सादर अभिवादन। बेहतरीन ग़ज़ल कहीं आपने, शेष गुनिजनो की बात संज्ञान में लीजियेगा। मेरी शैर दर शैर बधाई हाजिर है।

Comment by Afroz 'sahr' on December 17, 2017 at 3:44pm
आदरणीय राम अवध जी इस रचना पर बधाई आपको ,,ग़ज़ल के बारे में जनाब तस्दीक़ साहब कह ही चुके हैं
फिर भी एक बात बताना चाहूँगा ।
आपने काफ़िया "छदाम" बांधा है जो कि एक पुरानी मुद्रा सिक्के की शक्ल में हुआ करती थी। दर अस्ल "छदाम " पुल्लिंग नहीं । स्त्रीलिंग है। देखिएगा सादर,,,,,,
Comment by Tasdiq Ahmed Khan on December 17, 2017 at 10:43am

जनाब राम अवध साहिब ,इस बह्र में इनआम  क़ाफ़िया नहीं हो पायेगा ,सानी मिसरा आप चाहें तो यह कर सकते हैं ।"मेरा फहरिस में उनकी  नाम न था "

आपने एक अरकान गलत लिखा है ,वो फेलुंन नहीं बल्कि  फइलुन है ।

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on December 17, 2017 at 8:06am

आदर्णीय मोहम्मद आरिफ साहब ग़ज़ल सराहना केलिये सादर आभार

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on December 17, 2017 at 8:05am

आदर्णीय तस्दीक अहमद साहब आपका बहुत बहुत शुक्रिया मैं आपके द्वारा किये गये इस्लाह के अनुसार ग़ज़ल में सुधार करूँगा। क्या इन आम लिखने से मिसरा सही हो जायेगा।

Comment by Mohammed Arif on December 17, 2017 at 7:38am

आदरणीय राम अवध जी आदाब,

                        बड़े पैमाने च्छे अश'आरों से सजी बेहतरीन ग़ज़ल । हर शे'र माकूल । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on December 16, 2017 at 10:16pm

जनाब राम अवध साहिब ,सुन्दर ग़ज़ल हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।

मतले में ईनाम क़ाफ़िया नहीं बंध पायेगा ,सही शब्द इनआम है ।

आखरी शेर में शुतुरगुरबा और रदीफैंन का दोष है ।सानी मिसरेमें जिनके की जगह जिसके करलें और उला मिसरा यूँ कर सकते हैं "था भरोसा ख़ुदा पे सिर्फ उसे" ।

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