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ग़ज़ल -ये’ बातचीत में’ खरसान बैर बू क्या है?(संशोधित)

१२१२  ११२२  १२१२  २२

सटीक बात की’, आक्षेप बाँधनू क्या है

ये’ बातचीत में’ खरसान बैर बू क्या है?

नया ज़माना’ नया है तमाम पैराहन

अगर पहन लिया’ वो वस्त्र, फ़ालतू क्या है |

हसीन मानता’ हूँ मैं उसे, नहीं शोले

नजाकतें जहाँ’ है इश्क, तुन्दखू क्या है |

किया करार बहुत आम से चुनावों में

वजीर बनके’ कही रहबरी, कि तू क्या है ?

हो’ वुध्दिमान मिला राज, अब करो कुछ भी  

उलट पलट करो’ खुद आप, गुफ्तगू क्या है |

ये’ कर्ण फूल, गले हार, हाथ में कंगन  

पहन लिया सभी’ कुछ, और आरजू क्या है ?

जला जो’ आग से’ कश्मीर, भष्म में है क्या

वो’ खंडहर में’ बची लाश  जुस्तजू क्या है ?

सभी को’ है पता’ मंत्री बना अभी “काली”

नहीं तो’ देश में’ उसकी भी’ आबरू क्या है |

शब्दार्थ :-

बाँधनू – मन गढ़ंत , खरसान –तेज , बू –गंध

तुन्दखू-गुस्सैल;तेज मिज़ाज़, जुस्तजू –खोज, गवेषणा

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment by SALIM RAZA REWA on October 15, 2017 at 11:07am
आ. काली प्रसाद जी,
आप की नई ग़ज़ल की खंड सही है. देखने में कोई त्रुटि होगी, सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 11, 2017 at 6:38pm

बहुत अच्छी कोशिश हुई है आदरणीय बहुत बहुत बधाई

इसे थोड़ा वक़्त और देंगे तो और अच्छी हो जायेगी 

वो’ खंडहर में’ बची लाश की’ जुस्तजू क्या है ?---इसकी बह्र भी ठीक करें ये मिसरा सुधार चाहता है 

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 11, 2017 at 4:49pm

बहुत ही खुबसूरत ग़ज़ल कही है आपने आदरणीय | बधाई स्वीकारें |

Comment by Samar kabeer on October 10, 2017 at 7:06pm
जनाब कालीपद प्रसाद मण्डल जी आदाब,ग़ालिब की ज़मीनों पर अच्छा अभ्यास हो रहा है,बधाई स्वीकार करें ।
ये ग़ज़ल पहले से कुछ बहतर नज़र आ रही है,और ये तब्दीली मुसलसल अभ्यास का नतीजा है,अभी आपको भाषा,शिल्प,व्याकरण वग़ैरह का अभी बहुत अभ्यास करना है,मुझे उम्मीद है आप इन चीज़ों पर भी जल्द क़ाबू पा लेंगे ।

'हो,बुद्धिमान मिला राज,अब करो जो चाह'
ये मिसरा लय में नहीं है,इसे यूँ किया जा सकता है :-
'हो बुद्धिमान मिला राज अब करो कुछ भी'

'वो खंडहर में बची लाश की जुस्तुजू क्या है
ये मिसरा लय में नहीं है,देखियेगा ।
Comment by Kalipad Prasad Mandal on October 10, 2017 at 9:09am

आदरणीय राज नवादवी ,आदाब, कुछ सीखने के लिए मैंने ग़ालिब की जमीन को चुना | कोशिश कर रहा हूँ विधा को समझने की |आदरणीय समर कबीर साहब मेहरबान हैं , मेरी गलती को सुधार देते है | आप सबका आभारी हूँ | विनम्र कोशिश पर हौसला अफजाई करते है | आशा है आगे भी करते रहेंगे | आदाब 

Comment by Kalipad Prasad Mandal on October 10, 2017 at 8:50am

आदरणीय मोहम्मद आरिफ साहिब ,आदाब , हौसला अफजाई के लिए तहे दिल से शुक्रिया | आपकी सलाह पर अमल करने की कोशिश करूंगा | आदाब 

Comment by राज़ नवादवी on October 9, 2017 at 7:39pm

वाह भाई वाह जनाब काली प्रसाद जी, आपने ग़ालिब की ज़मीन पर एक अत्यंत नये अंदाज़  में ग़ज़ल लिखकर सुखद रूप से विस्मित किया है. बधाई हो. ग़ज़ल के शिल्प एवं अन्य तकनीकी विषय पर सुधिजन आगे बतायेंगे. सादर 

Comment by Mohammed Arif on October 9, 2017 at 12:02pm
आदरणीय कालीपद प्रसाद जी आदाब, एक अलग सी अंदाज़ की ग़ज़ल का आगाज़ किया आपने । काफिआ भी अलग अंदाज़ के । ढेरों बधाइयाँ स्वीकार करें ।
नोट:- कितना अच्छा हो अगर आप जैसे ग़ज़लगो साहित्य की अन्य विधा पर अपनी सृजनशीलता का परिचय देने वालों को भी अपनी टिप्पणियों से पोषित करें ताकि उनका उत्साहवर्धन हो सके ।

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