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ग़ज़ल -रिश्तों’ का रंग बदलता ही’ गया तेरे बाद

२१२२  ११२२  ११२२  २२(१)/ ११२(१)  ११२२

 

रिश्तों’ का रंग बदलता ही’ गया तेरे बाद

रौशनी हीन अलग चाँद दिखा तेरे बाद |

जीस्त  में कुछ नया’ बदलाव हुआ तेरे बाद

मैं नहीं जानता’ क्यों दुनिया’ खफा तेरे बाद |

हरिक त्यौहार में’ आनन्द मिला तेरे साथ

जिंदगी से हुए’ सब मोह जुदा तेरे बाद |

रात छोटी हो’ गयी और बहुत लम्बा दिन

अब तो’ जीना हो’ गई एक सज़ा तेरे बाद |

साथ आई थीं’ वो’ आपत्तियाँ’, तुझको ले’ गयी

नहीं’ अब तक टली’ वो बलवा’ बला तेरे बाद |

इश्क में मस्त थे’ हम जिंदगी’ में साथ सदा

अब मुहब्बत से’ भी’ दिलगीर हुआ तेरे बाद |

बेखुदी में था’सदा तेरे’ मुहब्बत-मय में 

साकिया से भी’ मे’रे ध्यान हटा तेरे बाद |

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Saurabh Pandey on October 8, 2017 at 1:26pm

इस कोशिश के लिए धन्यवाद आदरणीय कालीपद जी. 

नया जैसे शब्द का या को गिराना उचित नहीं है. और बहर को साधने में गेयता भी बनी रहे इसका ध्यान रखें तो शेर और प्रभावी दिखेंगे. 

शुभ-शुभ

Comment by Samar kabeer on October 5, 2017 at 10:20pm
आप 'ग़ालिब'की किस ग़ज़ल के बारे में कह रहे हैं जनाब ?
इस ऐब को 'हर्फ़-ए-शिकस्त-ए-नारवा'कहते हैं ।
Comment by Kalipad Prasad Mandal on October 5, 2017 at 10:10pm

आ समर कबीर साहिब , आदाब ,आपके निर्देश अनुसार लास्ट रचना में सुधार  कर दिया है | गालिब  के गजलों में मैंने पाया  कि उन्होंने शिकस्ता नारवा दोष को कोई महत्व नही दिया है | दरअसल इसे दोष मानने से अभिव्यक्ति और भाव सम्प्रेषण में बाधा उत्पन होती है | शायद इसी वजह उन्होंने इसका नज़रंदाज़ लिया होगा या उस वक्त इसको दोष माना नहीं जाता होगा जैसे दाग के पहले शुतुर्गुरबा दोष को नहीं मानते थे | सादर 

Comment by Samar kabeer on October 5, 2017 at 12:29pm
जनाब कालीपद प्रसाद मण्डल जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

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