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सब कुछ उपलब्ध है दुकानों में (ग़ज़ल)

2122 1212 22

सब हैं मसरूफ़ अब उड़ानों में
देखिये भीड़ आसमानों में

प्यार? ईमान? दोस्ती? जी हाँ
सब कुछ उपलब्ध है दुकानों में

भुखमरी,बालश्रम,अशिक्षा..सब
मिट चुके हैं फ़क़त बयानों में

पत्थरों से उन्हीं की यारी है
जो हैं शीशे-जड़े मकानों में

सच्चे हीरे की है तलाश अगर
जा! भटक कोयले की खानों में

बच्चे लड़-भिड़ के खेलने भी लगे
गुफ़्तगू बंद है सयानों में

फ़र्श से अर्श पर मैं जा पहुँचा
कितनी ताक़त है देखो तानों में

उसकी यादों की कूक गूँजे जब
मिश्री घुलती है दिल के कानों में

शायरी ने शुमार कर डाला
नाम तेरा भी "जय" दीवानों में

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 27, 2017 at 4:43pm

अच्छी ग़ज़ल पेश की है आ. जयनीत जी
बधाई ..
समर सर की बातों का संज्ञान लें

Comment by Ravi Shukla on September 27, 2017 at 2:26pm
आदरणीय जयंत जी अच्छी ग़ज़ल कही आपने गुफ्तगू बंद है सयानों में अच्छा शेर लगा हमें बहुत-बहुत बधाई बारीक बातें आदरणीय समर साहब ने बता दी हैं उन पर गौर करिएगा एक बार फिर से मुबारक
Comment by Samar kabeer on September 27, 2017 at 12:16pm
जनाब जयनित कुमार मेहता जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।

'मिट चुके हैं फ़क़त बयानों में'
ये मिसरा स्पष्ट नहीं है,ऊला के हिसाब से भाव ये बनता है:-
'मिल रहे हैं फ़क़त बयानों में'

'जा!भटक कोयले की खानों में'
इस मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर देखिये ।
'मिश्री घुलती है दिल के कानों में'
'दिल के कानों'क्या बात हुई ?यूँ होना चाहिए:-
'मिश्री घुलती है मेरे कानों में'
मक़्ते के सानी मिसरे में 'दीवानों' को "दिवानों" कर लें ।
Comment by नाथ सोनांचली on September 27, 2017 at 8:31am
आद0 जयनित मेहता जी सादर अभिवादन, बेहतरीन ग़ज़ल कहीं आपने, बधाई आपको।शेष गुणीजन अपनी राय देंगें। सादर

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