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भले ही आईने धोये हुए हैं (फिल्बदीह ग़ज़ल 'राज')

१२२२  १२२२  १२२

चढ़े सूरज तलक सोए हुए हैं

किसी की याद में खोए हुए हैं

 

ग़ज़ल लिक्खी हुई है आंसुओं से

कहें किससे कि हम रोये हुए हैं

 

तभी भीगा हुआ तकिया मिला है

इसे अश्कों से हम धोये  हुए हैं

 

कमर टूटी ज़फ़ा की चोट खाकर 

मगर फिर भी वफ़ा ढोए हुए हैं

 

वहाँ चर्चा हमारा हो रहा है

न जाने हम कहाँ खोए हुए हैं

 

तुम्हारे दाग ज्यों के त्यों दिखेंगे

भले ही  आईने धोए हुए हैं  

चुभेंगे तुमको  भी इक दिन ये  कांटें

मेरी राहों में जो बोये हुए हैं  

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by SALIM RAZA REWA on September 21, 2017 at 11:51am
आदरणीया राजेश कुमारी जी आदाब, बेहतरीन ग़ज़ल मुबारक़बाद,

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 21, 2017 at 11:12am
अच्छी ग़ज़ल हुई है दीदी बहुत-बहुत बधाई आपको

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 21, 2017 at 8:59am

मोहतरम मोहम्मद आरिफ जी आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका दिल से बहुत- बहुत शुक्रिया |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 21, 2017 at 8:58am

आद० निलेश भैया आपका बहुत बहुत शुक्रिया आपकी इस्स्लाह काबिले गौर है 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 21, 2017 at 8:58am

आद० समर भाई जी आपका तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 21, 2017 at 8:57am

आद०  अफरोज़ साहब आपको ग़ज़ल पसंद आई दिल से शुक्रिया आपका 

Comment by Mohammed Arif on September 21, 2017 at 8:15am
आदरणीया राजेश कुमारी जी आदाब, बेहतरीन ग़ज़ल । हर शे'र बढ़िया । दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें ।
Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 21, 2017 at 7:20am

सीमित काफ़िये के बावजूद अच्छी ग़ज़ल कही आपने ..
चूँकि फिल्बदी है इसलिये आप से आग्रह है कि समय  मिलने पर इन अशआर को और मांजियेगा ..और कसावट आ जायेगी 
.
मसलन 
.

चुभेंगे तुमको  भी इक दिन ये  कांटें

मेरी राहों में जो बोये हुए हैं ....
उन्हें इक दिन यही काँटें चुभेंगे 
जो मेरी राह में बोये हुए हैं 
सादर 

Comment by Samar kabeer on September 20, 2017 at 9:46pm
बहना राजेश कुमारी जी आदाब,बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
Comment by Afroz 'sahr' on September 20, 2017 at 8:30pm
मोहतरमा राजेश कुमारी साहिबा बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल है! शेर दर शेर दाद पेश करता हूँ । स्वीकार करें । सादर

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