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ग़ज़ल - ढोते फिरेंगे आप मुहब्बत कहाँ कहाँ

बह्र : 221/2121/1221/212

इस दोस्ती के बीच तिजारत कहाँ कहाँ
तुमने लगायी है मेरी कीमत कहाँ कहाँ

तुम मुझ से कह रहे हो कि मैं होश में रहूँ
नासेह दे रहे हो नसीहत कहाँ कहाँ

सब कुछ हमें ख़बर है नुमाइश के दौर में
करता है कौन कितनी सियासत कहाँ कहाँ

हैं आप जो ख़ुदा तो मुझे पूछना है ये
पहुँची है मुफ़लिसों की इबादत कहाँ कहाँ

गंगा में ले के जाइए और फेंक आइए
ढोते फिरेंगे आप मुहब्बत कहाँ कहाँ

तुम पूछ तो रहे हो मगर क्या बताएँ हम
किस किस की है ख़राब तबीअत कहाँ कहाँ

मेरा ही जिस्म मेरी बग़ावत पे उतरा है
मुझ में दबी है आपकी हसरत कहाँ कहाँ

इस भीड़ में मैंने भी कहीं खो दिया वजूद
अब पड़ रही है ख़ुद की ज़रूरत कहाँ कहाँ

ताउम्र दूर दूर रहे, सोचते रहे
देगी हमें ये नौकरी फ़ुर्सत कहाँ कहाँ

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Mahendra Kumar on September 10, 2017 at 7:49pm

ग़ज़ल पर उपस्थिति हो कर अपनी प्रतिक्रिया से परिचित कराने हेतु आपका बहुत-बहुत आभार आ. सुरेन्द्र जी. सादर.

Comment by Mahendra Kumar on September 10, 2017 at 7:48pm

बहुत-बहुत शुक्रिया आ. बृजेश जी. सादर.

Comment by Mahendra Kumar on September 10, 2017 at 7:48pm

आ. समर कबीर, सादर आदाब. आपने अपना कीमती वक़्त निकाल कर ग़ज़ल को इतना वक़्त दिया, आपका बहुत-बहुत शुक्रिया. मैं देखता हूँ कि आपके सुझाव अनुसार इस ग़ज़ल में और क्या बेहतर कर सकता हूँ. आपका बहुत-बहुत आभार. सादर.

Comment by नाथ सोनांचली on September 6, 2017 at 4:23am
आद0 महेंद्र जी सादर अभिवादन, आपकी ग़ज़ल पर आद0 समर साहब ने सब कुछ कह दिया है। मेरी भी इस सार्थक प्रयास पर बधाई स्वीकारें।
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 5, 2017 at 11:08pm
आदरणीय महेंद्र जी बड़ी ही अच्छी ग़ज़ल हुई..सादर
Comment by Samar kabeer on September 5, 2017 at 6:18pm
जनाब महेन्द्र कुमार जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
इस रदीफ़ को निभाना थोड़ा दिक़्क़त तलब है, और यही वजह है कि इस जमीन में मतला कहना बहुत दुश्वार अमल है ।
मतले के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है,मतला यूँ किया जा सकता है :-
'की तुमने दोस्ती में तिजारत कहाँ कहाँ
यारो लगाई है मेरी क़ीमत कहाँ कहाँ'

'नासेह दे रहे हो नसीहत कहाँ कहाँ'
इस मिसरे में 'नासेह'ग़लत है,सही शब्द है,"नासिह"इसका वज़्न होगा 22 ।

'मेरा ही जिस्म मेरी बग़ावत पे उतरा है
मुझ में दबी है आपकी हसरत कहाँ कहाँ'
इस शैर में मफ़हूम साफ़ नहीं,इसलिये दोनों मिसरों में रब्त नहीं पैदा हो सका इस शैर को यूँ कर सकते हैं :-
'मेरे बदन को चीर के ख़ुद देख लीजिए
मुझ में दबी है आपकी हसरत कहाँ कहाँ'

'इस भीड़ में मैंने भी कहीं खो दिया वजूद
अब पड़ रही है ख़ुद की ज़रूरत कहाँ कहाँ'
इस शैर के ऊला मिसरे में 'भी'शब्द भर्ती का है, और मफ़हूम साफ़ नहीं है,दोनों मिसरों में रब्त नहीं है,इसे यूँ किया जा सकता है:-
'दुनिया की भीड़ में तुझे खो कर पता चला
अब पड़ रही है तेरी ज़रूरत कहाँ कहाँ'
आपके विकल्प सुरक्षित हैं ।
बाक़ी शुभ शुभ ।

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