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ग़ज़ल - इक जलतरंग दिल में बजाकर चले गए

221 / 2121 / 1221 / 212

इक जलतरंग दिल में बजाकर चले गए
वो रंगे इश्क मुझपे चढ़ाकर चले गए

जैसे गुलाब की कली हो जाए संदली
ख़ुशबू फिज़ा में ऐसी मिलाकर चले गए

बादल उड़े फ़लक पे बने नक़्श वो हसीं
उस नाज़नीं की याद दिलाकर चले गए

मुस्कान दे गए मुझे बचपन के यार कुछ
मेरी उदासियों को चुराकर चले गए

जुगनू ही बनके रह गए सूरज कई यहाँ
कोरस में गीत कितने ही गाकर चले गए

क्यूं शम्स के उजाले ये नींदों के फूलों से
ख्वाबों की तितलियों को उड़ाकर चले गए

औकात जुगनुओं सी भी रखते नहीं हैं जो
सौ दाग चाँद में वो गिनाकर चले गए

उम्मीद जिनसे थी हमें भरपूर दाद की
दो चार तालियाँ वो बजाकर चले गए

थामेगा कौन हिंदी का परचम सवाल है
शंकर,निराला,पंत,दिवाकर चले गए

बादल बरस गए सभी भरपूर झील पर
खेतों को खाली हाथ दिखाकर चले गए

किरदार अपना जी रहे कुछ लोग जीस्त में
कुछ अपनी भूमिका को निभाकर चले गए
____________________________
गजेन्द्र श्रोत्रिय
मौलिक व अप्रकाशित

Views: 944

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Comment by Ravi Shukla on August 8, 2017 at 10:02am

आदरणीय गजेन्‍द्र जी  अच्‍छी गजल कही आपने शेर दर शेर मुबारक बाद पेश है

Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on August 7, 2017 at 6:53pm
आ0 गजेन्द्र जी इस खूबसूरत ग़ज़ल की हृदय से बधाई। अंतिम अशआर को यूं कर सकते है।

कुछ अपनी भूमिका को निभा कर चले गए
____________________________
Comment by Gurpreet Singh jammu on August 7, 2017 at 11:34am

आदरणीय गजेंद्र जी,, बहुत दिलकश अशआर हुए हैं,,, इस खूबसूरत  ग़ज़ल के लिए आपको बधाई 

Comment by नाथ सोनांचली on August 7, 2017 at 8:30am
आद0 गजेंद्र जी सादर अभिवादन, बहुत खूब,, उम्दा ग़ज़ल पर दाद के साथ मुबारकबा बाद क़बूलें। सादर
Comment by Mohammed Arif on August 7, 2017 at 8:28am
आदरणीय गजेंद्र जी आदाब, बेहतरीन ग़ज़ल । शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें । आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब की इस्लाह पर ध्यान दें ।
Comment by Gajendra shrotriya on August 6, 2017 at 6:14pm
हार्दिक आभार आ० गिरिराज भंडारी जी।
Comment by Gajendra shrotriya on August 6, 2017 at 6:11pm
बहुत शुक्रिया आ० तस्दीक अहमद खान साहब
Comment by Gajendra shrotriya on August 6, 2017 at 6:07pm
आदरणीय समर कबीर साहब नमस्कार। आपका ह्रदय से आभार। निर्देशित संशोधन हेतु प्रयासरत हूँ। आप जैसे अदीबों की समालोचना से किसी भी रचना का रुप निखर जाता है। बस यूंही आशीष देकर हमें परिष्कृत करते रहें। सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 6, 2017 at 5:23pm

आदरणीय गजेन्द्र भाई , लाजवाब ग़ज़ल कही है आपने , मुबारकबाद कुबूल कीजिये ।

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on August 6, 2017 at 4:02pm
जनाब गजेन्द्र साहिब ,सुन्दर ग़ज़ल हुई ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें । शेर 7 उला मिसरा बह्र में नहीं है ,( पढ़ते हैं जुगनुओं के क़सीदे जो दोस्तों)

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