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लाठी के सहारे (लघुकथा)/ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"थकना और छकना तो है ही, लेकिन रुकना नहीं है। आगे बढ़ने के लिए यह सब भी करना ही है।" अगले पड़ाव पर बैठ कर वह सोचने लगा।

"पहले अपनी अंदरूनी असली हालत और असली ताक़त पर ग़ौर करो, उसे बरकरार रखने, सुधारने या बढ़ाने की असली कोशिश करो!" अन्तर्मन की आवाज़ ने 'फिर से' उसे झकझोर दिया।

"असली हालत ही तो यह सब करा रही है न! यही असली ताक़त बरकरार रखने या बढ़ाने के लिए निहायत ज़रूरी है!" उसने स्वयं को तसल्ली दी।

"तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हारी हालत तो उस तज़ुर्बेकार बूढ़े इंसान जैसी है, जो लाठी और बची-खुची ज़मीं-जायदाद के भरोसे रिश्ते निभाते हुए अपनी नैया खेता है अपनों से ही कष्ट झेलते हुए?" अन्तर्मन ने फिर से उसे अंदर तक हिला दिया।

"बचा-खुचा नहीं कहो! अब भी बहुत कुछ है मेरे पास। दूसरों ने जो हमसे छीन लिया या अपनों ने जो बरबाद कर दिया, उसके अलावा भी बहुत कुछ है मेरे पास!" भरोसे के साथ उसने लम्बी सांस लेते हुए कहा- "तज़ुर्बे ही मुझे यूं विदेशों में दर-दर घुमाते हैं!"

"तुम्हारी पोटली या पिटारे में अब जो बहुत कुछ है तुम्हारे पास, वह विदेशों को बांट रहे हो या ब्लेकमेल हो रहे हो या केवल लेन-देन और व्यापार से किसी तरह स्वयं को संतुष्ट करने की सफल या असफल कोशिशें कर रहे हो?" उसके अन्तर्मन ने कटाक्ष किया।

"दौर ही ऐसा है, हालात ही ऐसे हैं कि दुनिया के साथ चलने के लिए यह सब करना ही होगा!"

"तो अब यहां इस द्वार पर किसलिए पधार रहे हो? अपने पिटारे से अपनी अमूल्य 'विरासत', 'संस्कृति', 'सम्पदा, 'प्रतिभायें' या 'तकनीकें' इनको देने के लिए या इनके पिटारे से इनकी यही या ऐसी ही चीज़ें लेने के लिए या मात्र सौदेबाज़ी के लिए!" अन्तर्मन के ये सवाल सुनकर वह स्वयं में उलझ कर रह गया।

" 'सौदेबाज़ी', 'ब्लेकमेलिंग', 'समझौते' या गड़बड़-सड़बड़ 'वैश्वीकरण' के नाम पर यह सब अपने विकास के लिए ही है या विकास के छद्म वेश में विनाश की नींव के लिए?" स्वतंत्र व परिपक्व लोकतंत्र 'भारत' स्वयं में कभी 'किसान' को देख रहा था, कभी 'जवान' को और कभी 'विज्ञान' को अपनी बची हुई पोटली रूपी पिटारे को संभालता हुआ, लेकिन विकसित कहे जाने वाले किसी देश की या फिर किसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्था की लाठी पकड़े हुए।

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on August 2, 2017 at 7:10pm
मेरी इस अभ्यास रचना के पटल पर शिरक़त कर रचना के अवलोकन, अनुमोदन व हौसला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय लक्ष्मण धामी जी व आदरणीय विजय निकोरे जी।
Comment by vijay nikore on August 2, 2017 at 9:43am

 

लघु कथा की कलम पर आपका हाथ माहिर है। बधाई, जनाब शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 1, 2017 at 7:11am
बेहतरीन कथा हार्दिक बधाई।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on July 30, 2017 at 11:13pm
70 से अधिक वर्षीय स्वतंत्र एवं परिपक्व लोकतांत्रिक देश के प्रतीक के रूप में पात्र और उसके अंतर्मन की बात को व्यक्त करती मेरी इस प्रतीकात्मक शैली के रचना अभ्यास पर समय देकर अनुमोदन व हौसला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब मोहम्मद आरिफ़ साहब, आदरणीय जानकी बिष्ट वाही जी व जनाब समर कबीर साहब।
Comment by Samar kabeer on July 30, 2017 at 6:43pm
जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,हमेशा की तरह बहुत उम्दा लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Janki wahie on July 28, 2017 at 6:17pm
Iबेहतरीन कथ्य और बेहतरीन शिल्प ।हार्दिक बधाई।
Comment by Mohammed Arif on July 27, 2017 at 10:31pm
आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी आदाब, अंतर्मन के सहारे आपने वैश्विकरण के दौर में बढ़ती विवशता को इशारों-इशारों में इंगित कर दिया । बढ़िया लघुकथा । दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें ।

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